कोई भी कम्पनी अपने उत्पाद की विशेषताओं का प्रचार करती है उसको विज्ञापन कहते है लेकिन सवाल उठता है कि आज टेलीविजन पर जितने विज्ञापन आते है क्या वो इस परिभाषा पर खरे उतरते है या नहीं ! आपका जवाब निश्चित तौर पर नहीं में ही होगा !!
आज विज्ञापन के नाम पर केवल फूहड़ता ही परोसी जा रही है ! नारी के पावन शरीर को केवल वासना की वस्तु बना दिया गया है इन विज्ञापनों की दुनिया ने और जितनी भी विदेशी कंपनियां भारत में है खास तौर से उन्होंने इस तरह की गंदगी फैलाई है ! हिन्दुस्थान यूनी लीवर के उत्पादों के विज्ञापन और अन्य बोडी स्प्रे के विज्ञापन तो इतने घटिया होते है कि आदमी अगर परिवार के साथ कोई सीरियल देखता है और ब्रेक में ऐसे विज्ञापन आ जाए तो आदमी का मरण हो जाता है वो भी खास तौर पर तब जब रिमोट बच्चों के हाथ में हो ! क्या ऐसे विज्ञापनों पर कोई कारवाई नहीं होनी चाहिए !!
भारत सरकार को ये फूहड़ता रोकने के लिए तो कानून बनाना ही चाहिए इसके साथ साथ ये उन कंपनियों पर लगाम लगाने की पहल करनी चाहिए जो कंपनियां अपने उत्पाद कि झूठी विशेषताएं बताते हैं जबकि उनके उत्पादों में वैसा कुछ भी नहीं होता जैसा वो कंपनियां अपने विज्ञापनों में दिखाते है ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों पढ़ने को मिला जब जोधपुर के एक उपभोक्ता ने उपभोक्ता अदालत में कोलगेट कम्पनी के विरुद्ध झूठा विज्ञापन देने का वाद दायर किया और उसकी जीत हुयी क्योंकि कम्पनी ने तर्क दिया था कि विज्ञापन में तो बहुत कुछ दिखाया जाता है वो सारा सही थोडा ही हो सकता है तो उपभोक्ता अदालत ने इस तर्क के साथ कम्पनी पर जुर्माना लगाया गया कि जब आपके उत्पाद में वो विशेषताएं है ही नहीं जो आप विज्ञापन में दिखाते है तो वो विज्ञापन दिखाकर उपभोक्ताओं के साथ धोखा क्यों कर रहे है !
ये तो केवल एक मामले का मैंने एक उदाहरण दिया है लेकिन ऐसे बहुत से मामले हमारे सामने आते है जो ये सोचने पर मजबूर करते है कि क्या इन बेलगाम हो रहे विज्ञापनों पर रोक नहीं लगनी चाहिए ! इसका एक और पहलु है वो भी ध्यान में रखना जरुरी जितनी भी फूहड़पन की शुरुआत फिल्मों ,सीरियलों में हुयी है उसके लिए पहल सबसे पहले विज्ञापनों के माध्यम से ही हुयी है पहले विज्ञापनों में फूहड़ता दिखाई जाती है फिर उसको फिल्मों में स्थान दिया जाता है और उसके बाद उसको सीरियलों के माध्यम से परोसा जाता है और ये इतफाक नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति पर बहुत सोच विचार कर हमला किया जा रहा है क्योंकि इस पर अगर कोई विज्ञापन पर सवाल उठाता है तो विज्ञापनों वाले तर्क देते है कि अगर कोई हमारे विज्ञापन नहीं देखना चाहता है तो चेन्नल बदल सकता है हम उसी चेन्नल को देखने के लिए बाध्य तो नहीं कर सकते है अब उसके बाद नंबर आता है फिल्मों वालों का तो कुछ तो समाज विज्ञापनों को देखते देखते उस फूहड़ता का आदी हो जाता है फिर भी कुछ सवाल उठते है तो उनका तर्क होता है कि हम तो वही दिखाते है जो दर्शक चाहते है और दर्शक क्या चाहते है इसका कोई पैमाना है नहीं और इसके बाद सीरियल वाले तो जिस खूबसूरती से फूहडता परोसते है उसका तो कोई जवाब ही नहीं है और विज्ञापनों और फिल्मों की फूहड़ता देखकर समाज भी उस फूहड़ता को सहन करने का आदी हो जाता है इसलिए सबसे पहले विज्ञापनों में दिखाई जा रही फूहड़ता पर लगाम लगानी बहुत जरुरी है !!
क्या अपना उत्पाद बेचने के लिए अश्लीलता या फूहडपन दिखाना कंपनियों कि मज़बूरी है तो महाशय मेरा जवाब यही होगा कि बिलकुल जरुरी नहीं है और इसके लिए में आपको बता सकता हूँ कि निरमा कम्पनी अपना विज्ञापन में बिलकुल फूहड़ता प्रदर्शित नहीं करती है और अपना उत्पाद बेचती है और सबसे मजेदार बात निरमा कम्पनी ने उसके उत्पाद निरमा सर्फ़ का विज्ञापन तो आज तक बदला भी नहीं है लगभग पच्चीस साल से तो उसका एक ही विज्ञापन में सुन और देख रहा हूँ इसलिए विज्ञापनों में फूहड़ता कि जरुरत बिलकुल भी नहीं है और भारतीय उपभोक्ता फूहड़ता नहीं चाहते लेकिन ये कंपनियां जबरदस्ती फूहड़ता परोस रही है !!
इन बेलगाम हो रहे विज्ञापनों पर निश्चित रूप से सरकार को रोका जाना चाहिए और अगर सरकार इस दिशा में कारवाई नहीं करती है तो समाज को इस दिशा में सोचना चाहिए और इन विदेशी कंपनियों का बहिष्कार करना चाहिए जो अश्लीलता या फूहडपन जबरदस्ती परोस रही है !मैंने विदेशी कंपनियों का नाम यहाँ पर इसलिए लिया है कि यही कंपनियां सबसे ज्यादा अश्लीलता या फूहडपन परोस रही है जबकि भारती कंपनियां अभी भी इस मामले में संतुलन बनाए हुए है !!
विज्ञापनों के इस मकड़जाल को समझाने में तो शायद ये लेख कई पन्नों का हो साकता है और एक एक विज्ञापन पर बात करें तो शायद एक महापुरुष की जीवनी से भी ज्यादा बड़ा हो सकता है लेकिन मैंने मोटे तौर पर इसको दो ही बातों पर केंद्रित रखा है और अगर इन दो बातों पर भी कोई सकारात्मक पहल हो जाए तो भारतीय समाज का बहुत भला हो सकता है !!
आज विज्ञापन के नाम पर केवल फूहड़ता ही परोसी जा रही है ! नारी के पावन शरीर को केवल वासना की वस्तु बना दिया गया है इन विज्ञापनों की दुनिया ने और जितनी भी विदेशी कंपनियां भारत में है खास तौर से उन्होंने इस तरह की गंदगी फैलाई है ! हिन्दुस्थान यूनी लीवर के उत्पादों के विज्ञापन और अन्य बोडी स्प्रे के विज्ञापन तो इतने घटिया होते है कि आदमी अगर परिवार के साथ कोई सीरियल देखता है और ब्रेक में ऐसे विज्ञापन आ जाए तो आदमी का मरण हो जाता है वो भी खास तौर पर तब जब रिमोट बच्चों के हाथ में हो ! क्या ऐसे विज्ञापनों पर कोई कारवाई नहीं होनी चाहिए !!
भारत सरकार को ये फूहड़ता रोकने के लिए तो कानून बनाना ही चाहिए इसके साथ साथ ये उन कंपनियों पर लगाम लगाने की पहल करनी चाहिए जो कंपनियां अपने उत्पाद कि झूठी विशेषताएं बताते हैं जबकि उनके उत्पादों में वैसा कुछ भी नहीं होता जैसा वो कंपनियां अपने विज्ञापनों में दिखाते है ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों पढ़ने को मिला जब जोधपुर के एक उपभोक्ता ने उपभोक्ता अदालत में कोलगेट कम्पनी के विरुद्ध झूठा विज्ञापन देने का वाद दायर किया और उसकी जीत हुयी क्योंकि कम्पनी ने तर्क दिया था कि विज्ञापन में तो बहुत कुछ दिखाया जाता है वो सारा सही थोडा ही हो सकता है तो उपभोक्ता अदालत ने इस तर्क के साथ कम्पनी पर जुर्माना लगाया गया कि जब आपके उत्पाद में वो विशेषताएं है ही नहीं जो आप विज्ञापन में दिखाते है तो वो विज्ञापन दिखाकर उपभोक्ताओं के साथ धोखा क्यों कर रहे है !
ये तो केवल एक मामले का मैंने एक उदाहरण दिया है लेकिन ऐसे बहुत से मामले हमारे सामने आते है जो ये सोचने पर मजबूर करते है कि क्या इन बेलगाम हो रहे विज्ञापनों पर रोक नहीं लगनी चाहिए ! इसका एक और पहलु है वो भी ध्यान में रखना जरुरी जितनी भी फूहड़पन की शुरुआत फिल्मों ,सीरियलों में हुयी है उसके लिए पहल सबसे पहले विज्ञापनों के माध्यम से ही हुयी है पहले विज्ञापनों में फूहड़ता दिखाई जाती है फिर उसको फिल्मों में स्थान दिया जाता है और उसके बाद उसको सीरियलों के माध्यम से परोसा जाता है और ये इतफाक नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति पर बहुत सोच विचार कर हमला किया जा रहा है क्योंकि इस पर अगर कोई विज्ञापन पर सवाल उठाता है तो विज्ञापनों वाले तर्क देते है कि अगर कोई हमारे विज्ञापन नहीं देखना चाहता है तो चेन्नल बदल सकता है हम उसी चेन्नल को देखने के लिए बाध्य तो नहीं कर सकते है अब उसके बाद नंबर आता है फिल्मों वालों का तो कुछ तो समाज विज्ञापनों को देखते देखते उस फूहड़ता का आदी हो जाता है फिर भी कुछ सवाल उठते है तो उनका तर्क होता है कि हम तो वही दिखाते है जो दर्शक चाहते है और दर्शक क्या चाहते है इसका कोई पैमाना है नहीं और इसके बाद सीरियल वाले तो जिस खूबसूरती से फूहडता परोसते है उसका तो कोई जवाब ही नहीं है और विज्ञापनों और फिल्मों की फूहड़ता देखकर समाज भी उस फूहड़ता को सहन करने का आदी हो जाता है इसलिए सबसे पहले विज्ञापनों में दिखाई जा रही फूहड़ता पर लगाम लगानी बहुत जरुरी है !!
क्या अपना उत्पाद बेचने के लिए अश्लीलता या फूहडपन दिखाना कंपनियों कि मज़बूरी है तो महाशय मेरा जवाब यही होगा कि बिलकुल जरुरी नहीं है और इसके लिए में आपको बता सकता हूँ कि निरमा कम्पनी अपना विज्ञापन में बिलकुल फूहड़ता प्रदर्शित नहीं करती है और अपना उत्पाद बेचती है और सबसे मजेदार बात निरमा कम्पनी ने उसके उत्पाद निरमा सर्फ़ का विज्ञापन तो आज तक बदला भी नहीं है लगभग पच्चीस साल से तो उसका एक ही विज्ञापन में सुन और देख रहा हूँ इसलिए विज्ञापनों में फूहड़ता कि जरुरत बिलकुल भी नहीं है और भारतीय उपभोक्ता फूहड़ता नहीं चाहते लेकिन ये कंपनियां जबरदस्ती फूहड़ता परोस रही है !!
इन बेलगाम हो रहे विज्ञापनों पर निश्चित रूप से सरकार को रोका जाना चाहिए और अगर सरकार इस दिशा में कारवाई नहीं करती है तो समाज को इस दिशा में सोचना चाहिए और इन विदेशी कंपनियों का बहिष्कार करना चाहिए जो अश्लीलता या फूहडपन जबरदस्ती परोस रही है !मैंने विदेशी कंपनियों का नाम यहाँ पर इसलिए लिया है कि यही कंपनियां सबसे ज्यादा अश्लीलता या फूहडपन परोस रही है जबकि भारती कंपनियां अभी भी इस मामले में संतुलन बनाए हुए है !!
विज्ञापनों के इस मकड़जाल को समझाने में तो शायद ये लेख कई पन्नों का हो साकता है और एक एक विज्ञापन पर बात करें तो शायद एक महापुरुष की जीवनी से भी ज्यादा बड़ा हो सकता है लेकिन मैंने मोटे तौर पर इसको दो ही बातों पर केंद्रित रखा है और अगर इन दो बातों पर भी कोई सकारात्मक पहल हो जाए तो भारतीय समाज का बहुत भला हो सकता है !!
3 टिप्पणियां :
विज्ञापन की फूहडता से चीज है बिकती
गुणवत्ता होती नही जो विज्ञापन में दिखती,,,,,
RECENT POST-परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
Vulgarity is increasing day by day. Its really shameful.
बेहतरीन :)
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