शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

वाराहमिहिर :खगोलिकी और ज्योतिष के महान ज्ञाता !!


वाराहमिहिर गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और ज्योतिष शास्त्री थे। इनका जन्म छठी शताब्दी ईसवी में उज्जैन में हुआ। उस समय भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग, गुप्तकाल, चल रहा था। देश वाह्य आक्रमणों से सुरक्षित था और प्रजा सुखी थी। शान्ति और समृद्धि के समय में विज्ञान, साहित्य और कला के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। वाराहमिहिर चन्द्रगुप्त के नवरत्नों में से एक थे।


वाराहमिहिर के नाम के बारे में एक कथा प्रचलित है। वाराहमिहिर को ज्योतिष-शास्त्र में विशेष योग्यता प्राप्त थी। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उन्हें नव-रत्न की उपाधि दी। राजा विक्रमादित्य के पुत्र-जन्म के समय मिहिर ने भविष्यवाणी की कि अमुक वर्ष के अमुक दिन एक सुअर (वाराह) इस बालक को मार डालेगा। राजा ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए बहुत इंतजाम किये लेकिन अंत में मिहिर की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। तब से मिहिर वाराहमिहिर कहलाये। वाराहमिहिर सूर्य के उपासक थे। यह माना जाता है कि सूर्य के आशीर्वाद से ही उनको ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त हुआ।

बुधवार, 22 अगस्त 2012

राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास !!

राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहाससार कर्नल टॉड ने अपने ग्रंथ ""अनाल्स एण्ड अन्टीक्कीटीज ऑफ राजस्थान'' में कहा है, ""राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोजन डास पैदा नहीं किया हौ।'' टॉड का यह कथन न केवल प्राचीन और मध्ययुग में वरन् आधुनिक काल में भी इतिहास की कसौटी पर खरा उतरा है। ८वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गहलोत अरब आक्रमण की बाढ़ को न रोकते तो सारे भारत में अरबों की तूती न बोलती । मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् १२३४ में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश और सन् १२३७ में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की। सन् १३०३ में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके में हजारों वीर वीरांगनाओं ने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गए। इस हार का बदला सन् १३२६ में राणा हमीर ने चुकाया, जब उन्होंने  खिलजी के नुमाइन्दे मालदेव चौहान और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़ की पताका फहराई।

१५वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् १५०८ में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् १५२६ में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमान गलत साबित हुआ। यही नहीं बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ता ही गया। तारीख १७ मार्च, १५२७ को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

अमर बलिदानी भाई मतिराम जी !!

औरंगजेब के शासन काल में हिंदुओं पर अनेक रूप से अत्याचार हुए थे जिहाद के नाम पर हिंदुओं का बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन करने के लिए इंसान के रूप में साक्षात् शैतान तलवार लेकर भयानक अत्याचार करने के लिए चारों तरफ निकल पड़े रास्ते में जो भी हिन्दू मिलता उसे या तो इस्लाम में दीक्षित करते अथवा उसका सर कलम कर देते!

कहते हैं की प्रतिदिन सवा मन हिंदुओं के जनेऊ की होली फूंक कर ही औरंगजेब भोजन करता था हिन्दुओं का स्वाभिमान नष्ट होता जा रहा था उनकी अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध प्रतिकार करने की शक्ति लुप्त होती जा रही थी!!

आगरे से हिन्दुओं पर अत्याचार की खबर फैलते फैलते लाहौर तक पहुँच गयी जब यह खबर भाई मतिराम जी को मिली तो हिन्दू स्वाभिमान के प्रतीक भाई मतिराम जी की आत्मा यह अत्याचार सुनकर तड़प उठी उनके हदय ने चीख चीख कर इस अन्याय के विरुद्ध अपनी आहुति देने का प्रण किया उन्हें विश्वास था की उनके प्रतिकार करने से और उनके बलिदान देने से निर्बल और असंगठित हिंदुओं में नवचेतना का संचार होगा और वे तत्काल लाहौर से आगरे पहुँच गए और इस्लामी मतान्ध तलवार के सामने सर झुकाएँ हुए मृत्यु के भय से अपने पूर्वजों के धर्मको छोड़ने को तैयार हिंदुओं को उन्होंने ललकार कर कहा- कायर कहीं के, मौत के डर से अपने प्यारे धर्म को छोड़ने में क्या तुमको लज्जा नहीं आती !!

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास !!

राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना मानव सभ्यता का इतिहास। प्रमाणों से ज्ञात है कि राजस्थान का आदि - निवासी पूर्व - प्रस्तर युगीन मानव था। सरस्वती, चम्बल, बनास, तथा लूनी नदियों तथा अरावली की श्रेणियों के किनारों और गड्ढ़ों में जमी हुई परतें तथा उनके आस - पास के क्षेत्रों में मिलने वाली पत्थरों के औजार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यहाँ का आदि - मानव इन नदियों के तटों और अरावली पर्वत की उपत्यकाओं में कम से कम एक लाख वर्ष पूर्व रहता था। कालांतर में इस पूर्व प्रस्तरकालीन मानव ने उत्तर - प्रस्तरकालीन युग में प्रवेश किया। इस समय तक वह भौंडे औजारों के बजाए पैने एवं चमकीले औजारों को बनाना सीख गया था। मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग तथा चमड़े एवं वल्कल के वस्रों का प्रयोग वह जान चुका था। इसी प्रकार घास -फूस की झोपड़ियों का घर बनाकर रहने की विधि वह जान चुका था।