बुधवार, 30 सितंबर 2015

उसका पैग़ाम बॊलॆगा !!

न जानॆं अदालत मॆं कल, किसका नाम बॊलॆगा,
यकीनन जब भी बॊलॆगा, वह बॆ-लगाम बॊलॆगा !!

मौत कॆ खौफ़ सॆ ज़रा भी, डरता नहीं है कभी,
मौन तॊड़ॆगा जिस दिन,फ़िर खुलॆ-आम बॊलॆगा !!

ठॊकरॆं मारनॆ वालॊ वॊ,हरॆक की ख़बर रखता है,
वॊ कुछ नहीं बॊलॆगा कल, उसका काम बॊलॆगा !!

लफ़्ज़ॊं मॆं उसकॆ समाया है,समन्दर तॆज़ाब का,
कल हर एक कॆ लबॊं सॆ, उसका पैग़ाम बॊलॆगा !!

आँधियॊं का अँदॆशा है,सभी चिरागॊं कॊ जला लॊ,
यॆ हौसला नयॆ सूरज कॊ, कल ऎहतराम बॊलॆगा !!

किस किस की ज़ुबां काटॆगी, सियासत की छूरी,
यहाँ हर बच्चा अली और,हर बच्चा राम बॊलॆगा !!

किसी सनद की गवाह की,जरूरत न हॊगी वहाँ,
आवाम की अदालत मॆं,हॊ खुद इल्ज़ाम बॊलॆगा !!

सियासती लुटॆरॊ तुम्हारॆ,सर पॆ टॊपियाँ न रहॆंगीं,
जिस दिन बिगड़ करकॆ, रॊटी का ग़ुलाम बॊलॆगा !!

तुमनॆं गरीबॊं कॆ आँसुऒं की, नीलामी लगाई है,
यॆ तुम्हारी सॊहरत की,नीलामी सरॆआम बॊलॆगा !!

गद्दाफ़ी की तरह मांगॆ, मुआफ़ी न मिलॆगी"राज"
इंक्लाब जिस दिन अपनी,वफ़ा का दाम बॊलॆगा !!

कवि-"राज बुन्दॆली जी

रविवार, 31 अगस्त 2014

मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं

आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं

लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ
घाव जिन्होंने भारत माता को गहरे दे रक्खे हैं
उन लोगों को जैड सुरक्षा के पहरे दे रक्खे हैं
जो भारत को बरबादी की हद तक लाने वाले हैं
वे ही स्वर्ण-जयंती का पैगाम सुनाने वाले हैं
आज़ादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है
बलिदानी-गाथा पर थूका, बार-बार तड़पाता है
क्रांतिकारियों की बलिवेदी जिससे गौरव पाती है
आज़ादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है
राजमहल के अन्दर ऐरे- गैरे तनकर बैठे हैं
बुद्धिमान सब गाँधी जी के बन्दर बनकर बैठे हैं
मै दिनकर की परम्परा का चारण हूँ
भूषण की शैली का नया उदहारण हूँ
इसीलिए मैं अभिनंदन के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |
इससे बढ़कर और शर्म की बात नहीं हो सकती थी
आजादी के परवानों पर घात नहीं हो सकती थी
कोई बलिदानी शेखर को आतंकी कह जाता है
पत्थर पर से नाम हटाकर कुर्सी पर रह जाता है
गाली की भी कोई सीमा है कोई मर्यादा है
ये घटना तो देश-द्रोह की परिभाषा से ज्यादा है
सारे वतन-पुरोधा चुप हैं कोई कहीं नहीं बोला
लेकिन कोई ये ना समझे कोई खून नहीं खौला
मेरी आँखों में पानी है सीने में चिंगारी है
राजनीति ने कुर्बानी के दिल पर ठोकर मारी है
सुनकर बलिदानी बेटों का धीरज डोल गया होगा
मंगल पांडे फिर शोणित की भाषा बोल गया होगा
सुनकर हिंद - महासागर की लहरें तड़प गई होंगी
शायद बिस्मिल की गजलों की बहरें तड़प गई होंगी
नीलगगन में कोई पुच्छल तारा टूट गया होगा
अशफाकउल्ला की आँखों में लावा फूट गया होगा
मातृभूमि पर मिटने वाला टोला भी रोया होगा
इन्कलाब का गीत बसंती चोला भी रोया होगा
चुपके-चुपके रोया होगा संगम-तीरथ का पानी
आँसू-आँसू रोयी होगी धरती की चूनर धानी
एक समंदर रोयी होगी भगतसिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फाँसी झूले सेनानी
जहाँ मरे आजाद पार्क के पत्ते खड़क गये होंगे
कहीं स्वर्ग में शेखर जी के बाजू फड़क गये होंगे
शायद पल दो पल को उनकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी
केवल सिंहासन का भाट नहीं हूँ मैं
विरुदावलियाँ वाली हाट नहीं हूँ मैं
मैं सूरज का बेटा तम के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |
शेखर महायज्ञ का नायक गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है
जिसके जीवन के दर्शन ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसने पिस्टल की गोली से इन्कलाब को भाषा दी
जिसकी यशगाथा भारत के घर-घर में नभचुम्बी है
जिसकी बेहद अल्प आयु भी कई युगों से लम्बी है
जिसके कारण त्याग अलौकिक माता के आँगन में था
जो इकलौता बेटा होकर आजादी के रण में था
जिसको ख़ूनी मेहंदी से भी देह रचना आता था
आजादी का योद्धा केवल चना-चबेना खाता था
अब तो नेता सड़कें, पर्वत, शहरों को खा जाते हैं
पुल के शिलान्यास के बदले नहरों को खा जाते हैं
जब तक भारत की नदियों में कल-कल बहता पानी है
क्रांति ज्वाल के इतिहासों में शेखर अमर कहानी है
आजादी के कारण जो गोरों से बहुत लड़ी है जी
शेखर की पिस्तौल किसी तीरथ से बहुत बड़ी है जी
स्वर्ण जयंती वाला जो ये मंदिर खड़ा हुआ होगा
शेखर इसकी बुनियादों के नीचे गड़ा हुआ होगा
मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ
आजादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ
जो भारत-माता की जय के नारे गाने वाले हैं
राष्ट्रवाद की गरिमा, गौरव-ज्ञान सिखाने वाले हैं
जो नैतिकता के अवमूल्यन का ग़म करते रहते हैं
देश-धर्म की रक्षा करने का दम भरते रहते हैं
जो छोटी-छोटी बातों पर संसद में अड़ जाते हैं
और रामजी के मंदिर पर सड़कों पर लड़ जाते हैं
स्वर्ण-जयंती रथ लेकर जो साठ दिनों तक घूमे थे
आजादी की यादों के पत्थर पूजे थे, चूमे थे
इस घटना पर चुप बैठे थे सब के मुहँ पर ताले थे
तब गठबंधन तोड़ा होता जो वे हिम्मत वाले थे
सच्चाई के संकल्पों की कलम सदा ही बोलेगी
समय-तुला तो वर्तमान के अपराधों को तोलेगी
वरना तुम साहस करके दो टूक डांट भी सकते थे
जो शहीदों पर थूक गई वो जीभ काट भी सकते थे
जलियांवाले बाग़ में जो निर्दोषों का हत्यारा था
ऊधमसिंह ने उस डायर को लन्दन जाकर मारा था
जो अतीत को तिरस्कार के चांटे देती आयी है
वर्तमान को जातिवाद के काँटे देती आयी है
जो भारत में पेरियार को पैगम्बर दर्शाती है
वातावरण विषैला करके मन ही मन हर्षाती है
जिसने चित्रकूट नगरी का नाम बदल कर डाल दिया
तुलसी की रामायण का सम्मान कुचल कर डाल दिया
जो कल तिलक, गोखले को गद्दार बताने वाली है
खुद को ही आजादी का हक़दार बताने वाली है
उससे गठबंधन जारी है ये कैसी लाचारी है
शायद कुर्सी और शहीदों में अब कुर्सी प्यारी है
जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे
भारत माता की जय कहकर फाँसी पर चढ़ जाते थे
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली
आजादी के हवन-कुंड के लिये जवानी दे डाली
दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते हैं
उनके स्मारक भी चारों धाम दिखाई देते हैं
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे
वे सतरंगे इंद्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो
इंद्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो
जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है
अमर तिरंगा उन बेटों की याद दिखाई देता है
उनका नाम जुबाँ पर लेकर पलकों को झपका लेना
उनकी यादों के पत्थर पर दो आँसू टपका देना
जो धरती में मस्तक बोकर चले गये
दाग़ गुलामी वाला धोकर चले गये
मैं उनकी पूजा की खातिर जीवन भर गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

बुधवार, 13 अगस्त 2014

शहर सॆ भला अपना गांव, चलॊ चलतॆ हैं !!

राजबुन्देली की एक रचना:-

रिश्तॊं मॆं नहीं कॊई दुराव, चलॊ चलतॆ हैं !
शहर सॆ भला अपना गांव, चलॊ चलतॆ हैं !!
पनघट की पगडंडियां, बिरवा बगीचॆ कॆ !
बुला रही बरगद की छांव, चलॊ चलतॆ हैं !!
अपनॆ पुरखॊं का चमन उजड़ता जा रहा !
मिल कॆ करॆंगॆ रख-रखाव, चलॊ चलतॆ हैं !!



गरमी की तपन वह, बारिष का भीगना !
सिसयातॆ जाड़ॆ कॆ अलाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
वॊ चटनी-रॊटी मुझॆ याद आती है बहुत !
सुहाता नहीं है यॆ पुलाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
हिन्दू-मुसलमां हॊ, अमीर या गरीब हॊ !
वहां नहीं कॊई भॆद-भाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

एक दूजॆ कॆ सुख-दुख कॆ साथी हैं सब !
आपस मॆं इतना लगाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
जरा तंग-हाली मॆं गुजरॆगी यॆ ज़िन्दगी !
हमॆशा न रहॆगा अभाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

आज़ादी सॆ रहॆंगॆ हम वहीं खॆती करॆंगॆ !
वहां नहीं है कॊई दबाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
माई बाबू की सॆवा सॆ, ज़न्नत मिलॆगी !
सब का यही है सुझाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

शहर की चकाचौंध मॆं, खॊ जायॆंगॆ हम !
दिलॊ-दिमाग मॆं है घाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
"राज बुन्दॆली" तॊ तखल्लुस है उनका !
नाम है डा.आर.एल.राव, चलॊ चलतॆ हैं !!


मंगलवार, 12 अगस्त 2014

चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है !!



एक ऐसी काव्य रचना जो स्कुल के दिनों से ही मेरी पसंदीदा रचना रही है ! :-


 चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है ।

हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥

हर शरीर मन्दिर सा पावन, हर मानव उपकारी है ।

जहाँ सिंह बन गये खिलौने, गाय जहाँ मा प्यारी है ।

जहाँ सवेरा शंख बजाता, लोरी गाती शाम है ।

हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥

जहाँ कर्म से भाग्य बदलते, श्रम निष्ठा कल्याणी है ।

त्याग और तप की गाथाएँ, गाती कवि की वाणी है ॥

ज्ञान जहाँ का गंगा जल सा, निर्मल है अविराम है ।

हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥

इसके सैनिक समर भूमि में, गाया करते गीता हैं ।

जहाँ खेत में हल के नीचे, खेला करती सीता हैं ।

जीवन का आदर्श यहाँ पर, परमेश्वरका धाम है ।

हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥

चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है ।

हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥

(रचियता : हरिमोहन विष्ठ )

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

जो आजादी हमें मिली वो भी अब छिनने लगी !
सत्ता की गलियाँ नोटों की गड्डियाँ गिनने लगी !!
देखना है मंजिल से फासला कितना साहिल में है !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

देश में वतनपरस्ती भी लग रही है अब मजाक लोगों को !
ईमान की नीलामी पर न मिलेगी वतन की ख़ाक लोगों को !!
हम को जो मार पाए दम वो कहाँ किसी बुजदिल में है !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!


ईमानदारों को मारकर वो जश्न मनाते जा रहे हैं !
वो माँ बहनों के पहलुओं में सर छुपाते जा रहे हैं !!
समझाए कीमत वतन की वो बात किस काबिल में है !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

कोयला और चारा भी अब भोजन का साधन बना !
चीत्कारों और कराहों की आवाज़ सत्ता का वादन बना !!
यहाँ मतलब की बात फ़ैल रहि बहती अनिल में है !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

भूख से तरसती आँखों पर ये एहसान जरुरी है !
भीख मांगने से बेहतर तो दो पल की मजदूरी है !!
मारता नहीं जो गद्दारों को गिनती उसकी कातिल में है !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

आत्म हत्या पर किसानों की हो रहा कागज़ी खेल यहाँ !
देश को बेंचने वालो का सत्ता से है मधुर मेल यहाँ !!
जो जगा दे भाव शहादत का कशिश नहीं वो मंजिल में हैं !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

अब युवाओं को ही इस देश को बचाना होगा !
विश्वविजयी पताका फिर से फहराना होगा !!
देश बचाने वाले नाच रहे पश्चिम की महफ़िल में हैं !
सरफरोशी की तमन्ना अब न किसी के दिल में है !!

( इस रचना के रचनाकार का पता मुझे नहीं है

शनिवार, 30 मार्च 2013

कलम की नॊंक सॆ आँधियॊं कॊ हम,रॊकतॆ रहॆ हैं रॊकतॆ रहॆंगॆ !!

कवि राजबुन्देली जी वीर रस से भरी कविता :-

फ़ांसी कॆ फन्दॊं कॊ हम , गर्दन दान दिया करतॆ हैं !
गॊरी जैसॆ शैतानॊं कॊ भी ,जीवन-दान दिया करतॆ हैं !!
क्षमाशीलता का जब कॊई , अपमान किया करता है !
अंधा राजपूत भी तब, प्रत्यंचा तान लिया करता है !!
भारत की पावन धरती नें , ऎसॆ कितनॆं बॆटॆ जायॆ हैं !
स्वाभिमान की रक्षा मॆं,उन नॆं निज शीश चढ़ायॆ हैं, !!
दॆश की ख़ातिर ज़िन्दगी हवन मॆं, झॊंकतॆ रहॆ हैं झॊंकतॆ रहॆंगॆ !
कलम की नॊंक सॆ आँधियॊं कॊ हम,रॊकतॆ रहॆ हैं रॊकतॆ रहॆंगॆ !!

स्वाभिमान की रक्षा मॆं, महिलायॆं ज़ौहर कर जाती हैं !
आन नहीं जानॆं दॆतीं जलकर, ज्वाला मॆं मर जाती हैं !!
याद करॊ पन्ना माँ जिस नॆं, दॆवासन कॊ हिला दिया !
राजकुँवर की मृत्यु-सॆज पर, निज बॆटॆ कॊ सुला दिया !!
भारत की तॊ नारी भी, दुर्गा है रणचण्डी है, काली है !
तलवार उठा लॆ हाँथॊं मॆं, तॊ महारानी झांसी वाली है !!
खाकर घास की रॊटी गर्व सॆ सीना, ठॊंकतॆ रहॆ हैं ठॊंकतॆ रहॆंगॆ !
कलम की नॊंक सॆ आँधियॊं कॊ हम,रॊकतॆ रहॆ हैं रॊकतॆ रहॆंगॆ !!

बुधवार, 20 मार्च 2013

बेटी !!


माया चौबे जी कि बेटी पर लिखी एक कविता मुझे पसंद आई उसी को आपसे साझा कर रहा हूँ :-


दो फूलों का बंधन है बेटी ,
दो परंपराओं का संगम है बेटी !
विश्व के उत्थान का आधार है बेटी ,
प्रेम,दया और ममता का सार है बेटी !!



हर गुणों से भरी हुयी है ,
फिर भी सहमी और डरी हुयी है !
न जानें कब से मौत,
मुहं खोले खड़ी हुयी है !!

गर्भपात कराने वाली माताओं,
क्या मुझे जीने का अधिकार नहीं है !
तुम भी तो हो एक बेटी ,
क्या बेटी को ही बेटी स्वीकार नहीं है !!

समाज के जालिम और निर्लज्ज लुटेरे,
मत डाल अपनी बुरी नजर के डोरे !
रोक दे शोषण के हर फेरे,
ताकि छंट जाए जुल्म के अँधेरे !

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

चंद्रशेखर आजाद जी पुण्यतिथि पर सादर समर्पित !!


चंद्रशेखर आजाद जी पर लिखी गयी मेरे पसंदीदा कवि राजबुन्देली जी की एक रचना :-

सूरज कॆ वंदन सॆ पहलॆ,धरती का वंदन करता था !
इसकी पावन मिट्टी सॆ,माथॆ पर चन्दन करता था !!
इसकी गौरव गाथाऒं का,वॊ गुण-गायन करता था !
आज़ादी की रामायण का,नित्य पारायण करता था !!
संपूर्ण क्रांन्ति का भारत मॆं, सच्चा जन-नाद नहीं हॊगा !
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा !!

भारत माँ का सच्चा बॆटा,आज़ादी का पूत वही था !
उग्र-क्रान्ति की सॆना का,संकट-मॊचन दूत वही था !!
आज़ादी की खातिर जन्मा, आज़ादी मॆं जिया मरा !
गॊली की बौछारॊं सॆ वह, शॆर-बब्बर ना कभी डरा !!
कपटी कालॆ अंग्रॆजॊं का खत्म, कुटिल उन्माद नहीं हॊगा !
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा !!

इस सॊनॆ की चिड़िया कॊ,खुलॆ-आम जॊ लूट रहॆ थॆ !
उस कॆ कॆहरि-गर्जन सॆ ही,सबकॆ छक्कॆ छूट रहॆ थॆ !!
उस मतवालॆ की सांसॊं मॆं, आज़ादी थी, आज़ादी थी !
हर बूँद रुधिर की उस की, आज़ादी की उन्मादी थी !!
यह राष्ट्र-तिरंगा भारत का, तब तक आबाद नहीं हॊगा !
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा !!

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

दिनकर का वंशज हूं मैं, श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!

मेरे प्रिय कवि राजबुन्देली जी कि रचना.........
कल मैंनॆ भी सोचा था कॊई, श्रृँगारिक गीत लिखूं !
बावरी मीरा की प्रॆम-तपस्या, राधा की प्रीत लिखूं !!
कुसुम कली कॆ कानों मॆं,मधुर भ्रमर संगीत लिखूं !
जीवन कॆ एकांकी-पन का,कॊई सच्चा मीत लिखूं !!
एक भयानक सपनॆं नॆं, चित्र अनॊखा खींच दिया !
श्रृँगार सृजन कॊ मॆरॆ, करुणा क्रंदन सॆ सींच दिया !!
यॆ हिंसा का मारा भारत, यह पूँछ रहा है गाँधी सॆ !
कब जन्मॆगा भगतसिंह, इस शोषण की आँधी सॆ !!
राज-घाट मॆं रोता गाँधी, अब बॆवश लाचार लिखूंगा !
दिनकर का वंशज हूं मैं, श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!

चिंतन बदला दर्शन बदला, बदला हर एक चॆहरा !
दही दूध कॆ छींकों पर, लगा बिल्लियॊं का पहरा !!
भ्रष्टाचारों की मंडी मॆं, बर्बाद बॆचारा भारत देखो !
जलती हॊली मे फंसा,प्रह्लाद हमारा भारत देखो !!
जीवन का कटु-सत्य है, छुपा हुआ इन बातॊं मॆं !
क्रान्ति चाहिए या शॊषण,चयन तुम्हारॆ हाथॊं मॆं !!
जल रही दहॆज की ज्वाला मॆं,नारी की चीख सुनॊं !
जीवन तॊ जीना ही है, क्रांति चुनॊं या भीख चुनॊं !!
स्वीकार तुम्हॆं समझौतॆ, मुझकॊ अस्वीकार लिखूंगा !
बरदाई का वंशज हूं मैं, श्रृंगार नहीं अंगार लिखूंगा !!
दिनकर का वंशज हूं मैं, श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

स्वामी रामदॆव जी कॊ समर्पित एक कविता !!


हर राष्ट्र-भक्त का हम मुक्त हृदय सॆ अभिनंदन करतॆ हैं !
उसकॆ चरणॊ की धूल उठा कर,माथॆ पर चन्दन करतॆ हैं !!
भारत की गौरव गाथा का, बच्चा- बच्चा गुण गान करॆ !
इसकी खातिर माता हंसकर,निज बॆटॊं का बलिदान करॆ !!
आज कंठ सॆ भारत माँ कॆ, कृंदित आवाज़ सुनाई दॆती है ! 
स्वामी जी की वाणी मॆं, भारत की आवाज़ सुनाई दॆती है !! 

दॆकर झूठॆ आश्वासन बस, जनता कॊ ही छला गया है ! 
भ्रष्टाचार कॆ अंगारॊं पर, इस, बॆचारी कॊ तला गया है !!
मिट जायॆं कालॆ बादल तॊ,दिन-मान भला क्या हॊगा !
काला-धन वापस आयॆ तॊ, नुकसान भला क्या हॊगा !!
कुछ भ्रष्टाचारी गद्दारॊं कॆ हांथॊं,लुटती लाज दिखाई दॆती है ! 
स्वामी जी की वाणी मॆं, भारत की आवाज़ सुनाई दॆती है !!

निश-दिन खातॆ हैं खाना जॊ, सॊनॆ-चाँदी कॆ थालॊं मॆं ! 
वॊ क्यॊं घात लगायॆ बैठॆ हैं,जनता कॆ चंद निवालॊं मॆं !!
जितना डर लगता है सबकॊ,इनकी मंहगी सरकारॊं सॆ !
उतना कॊई भी डरॆ नहीं हैं,उन अंग्रॆजॊं की तलवारॊं सॆ !! 
झूठॆ आश्वासन दॆ कर सत्ता, वर्षॊं सॆ यही सफाई दॆती है ! 
स्वामी जी की वाणी मॆं, भारत की आवाज़ सुनाई दॆती है !! 

सोमवार, 28 जनवरी 2013

कविता कॆ रस प्रॆमी बॊलॊ, श्रृँगार लिखूं या अंगार लिखूं !!


हर नौजवान कॆ हाथों मॆं, बस बॆकारी का हाला !
हर सीनॆं मॆं असंतोष की, धधक रही है ज्वाला !!
नारी कॆ माथॆ की बिंदिया, ना जानॆं कब रॊ दॆ !
वॊ बूढी मैया अपना बॆटा,क्या जानॆं कब खॊ दॆ !!
बिलख रहा है राखी मॆ, कितनीं, बहनॊं का प्यार लिखूं !


धन्य धन्य वह क्षत्राणी जिनकॊ वैभव नॆं पाला था !
आ पड़ी आन पर जब, सबनॆं जौहर कर डाला था !!
कल्मषता का काल-चक्र, पलक झपकतॆ रॊका था !
इतिहास गवाही दॆता है, श्रृँगार अग्नि मॆं झॊंका था !!
हल्दीघाटी कॆ कण-कण मॆं, वीरॊं की शॊणित धार लिखूं !
कविता कॆ रस-प्रॆमी बॊलॊ, श्रृँगार लिखूं या अंगार लिखूं !!


श्रृँगार सजॆ महलॊं मॆं वह,तड़ित बालिका बिजली थी !
श्रृँगार छॊड़ कर महारानी, रण भूमि मॆं निकली थी !!
बुंदॆलॆ हरबॊलॊं कॆ मुंह की, अमिट ज़ुबानी लिखी गई !
खूब लड़ी मर्दानी थी वह, झांसी की रानी लिखी गई !!
उन चूड़ी वालॆ हाँथॊं मॆं, मैं चमक उठी तलवार लिखूं !
कविता कॆ रस-प्रॆमी बॊलॊ,श्रृँगार लिखूं या अंगार लिखूं !!

रविवार, 27 जनवरी 2013

यह वंदेमातरम उसी शक्तिशाली युग की शुभ गाथा है।

बेशक तुमने अपमान किया,खण्डित भारत का मान किया॥
यह वंदेमातरम सम्प्रदाय का परिचायक है,कैसे मान लिया॥
आओ,मै तुम्हे बताता हूँ,इस वंदेमातरम की सत्ता। 
तुमको उसका भी ज्ञान नहीँ जो जान चुका पत्ता-पत्ता॥ 
जो ज्ञानशून्य भू पर बरसी,बन,शून्य-ज्ञान की रसधारा। 
दशमलव दिया इसने तब,जब था बेसुध भूमण्डल सारा॥ 
जब तुमलोगोँ के पुरखोँ को ईमान का था कुछ भान नहीँ। 

कच्चा ही बोटी खाते थे, वस्त्रोँ का भी था ज्ञान नहीँ। 
जंगल-जंगल मेँ पत्थर ले, नंगे-अधनंगे फिरते थे। 
सर्दी-गर्मी-वर्षा अपने उघरे तन बदन पर ही सहते थे।। 
तब वंदेमातरम के साधक, माँ चामुण्डा के आराधक। 
अज्ञान तिमिर का जो नाशक,था ढूँढ़ लिया हमने पावक॥ 
मलमल के छोटे टुकड़े से, उन्मत्त गजोँ को बाँध दिया। 
दुःशासन का पौरुष हारा, पट से पाञ्चाली लाद दिया॥ 
जब वंदेमातरम संस्कृति को था किसी सर्प ने ललकारा। 
तब लगा अचानक ही चढ़ने जनमेजय के मख का पारा॥ 

यह वंदेमातरम उसी शक्तिशाली युग की शुभ गाथा है। 
जिसके आगे भू के सारे नर का झुक जाता माथा है॥ 
इसका प्रथमाक्षर चार वेद,द्वितीयाक्षर देता दया,दान। 
तृतीयाक्षर माँ के चरणोँ मेँ,अर्पित ऋषियोँ का तप महान॥ 
पञ्चम अक्षर रणभेरी है,अंतिम मारु का मृत्युनाद। 
चिर उत्कीलित यह मंत्र मानवोँ की स्वतंत्रता का निनाद॥ 
जो स्वतंत्रता का चरम मंत्र,जो दीवानोँ की गायत्री। 
जो महाकाल की परिभाषा,भारत माँ की जीवनपत्री॥ 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥


पंथ कठिन है माना मैनॆ, मंज़िल ज्यादा दूर नहीं है ॥
करधन-कंगन मॆं खॊया रहना, मुझकॊ मंज़ूर नहीं है ॥
यॆ बिंदिया पायल झुमका, बॊलॊ बदलाव करॆंगॆ क्या ॥
कजरा रॆ, कजरा रॆ कॆ गानॆ, मां कॆ घाव भरॆंगॆ क्या ॥
अमर शहीदॊं का शॊणित, धिक्कार रहा है पौरुष कॊ ॥
वह धॊखॆबाज़ पड़ॊसी दॆखॊ,ललकार रहा है पौरुष कॊ ॥

श्रृँगार-गीत हॊं तुम्हॆं मुबारक, मॆरी कलम कॊ अंगार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ, अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥

सब कुछ लुटा दिया, क्या उनकॊ घर-द्वार नहीं था ॥
भूल गयॆ नातॆ-रिश्तॆ, क्या उनकॊ परिवार नहीं था ॥
क्या राखी कॆ धागॆ का, उन पर अधिकार नहीं था ॥
क्या बूढ़ी माँ की आँखॊं मॆं, बॆटॊं कॊ प्यार नहीं था ॥
आज़ादी की खातिर लड़तॆ, वह सूली पर झूल गयॆ ॥
आज़ाद दॆश कॆ वासी, बलिदान उन्ही का भूल गयॆ ॥

उन अमर शहीदॊं कॊ पूरा-पूरा, संवैधानिक अधिकार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ, अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥


बीत गईं जॊ काली-काली, अंधियारी रातॊं कॊ छॊड़ॊ ॥
घर कॆ गद्दारॊं सॆ निपटॊ,बाहर वाली बातॊं कॊ छॊड़ॊ ॥
बलिदानी अमर शहीदॊं पर,गर्व करॊ तुम नाज़ करॊ ॥
युवा-शक्ति आगॆ आऒ,जन-क्रान्ति का आगाज़ करॊ ॥
सारी दुनिया मॆं अपनॆ, भारत कॊ तुम सरताज करॊ ॥
गॊरॆ अंग्रॆज नहीं है इन, कालॆ अंग्रॆजॊं पर राज करॊ ॥

सोमवार, 14 जनवरी 2013

भारत की युवा-शक्ति उठ, माँ तुझसॆ वलिदान माँगती है !!

भारत कॆ सैनिकॊं की हत्या पर, इंद्रासन हिला नहीं !

प्रलयं-कारी शंकर का क्यॊं, नयन तीसरा खुला नहीं !!
शॆष अवतार लक्ष्मण जागॊ, मत करॊ प्रतीक्षा इतनी !
मर्यादाऒं मॆं बंदी भारत माँ,दॆ अग्नि-परीक्षा कितनी !!
हॆ निर्णायक महा-पर्व कॆ, तुम फिर सॆ जयघॊष करॊ !
युद्ध-सारथी बन भारत कॆ, जन-जन मॆं जल्लॊष भरॊ !!
भारत माँ की बासंती चूनर,तुमसॆ नया बिहान माँगती है !
महाँकुम्भ मॆं महाँ-युद्ध कर, यॆ रक्तिम स्नान माँगती है !!




सब नॆ दॆखा है दुश्मन कितना, अपघाती हिंसक है !
हाय हमारी किस्मत अपना शासन हुआ नपुंसक है !!
शीश कटा धड़ सैनिक का, धिक्कार रहा है सबकॊ !
कुर्सी सॆ तुम करॊ वार्ता,शत्रु ललकार रहा है सबकॊ !!
जब सरहद पर निर्दॊष,फ़ौजियॊं कॆ सर काटॆ जायॆंगॆ !
यॆ अस्त्र-शस्त्र भारत मॆं, रख कर क्या चाटॆ जायॆंगॆ !!
भारत की युवा-शक्ति उठ, माँ तुझसॆ वलिदान माँगती है !
महाँकुम्भ मॆं महाँ-युद्ध कर, यॆ रक्तिम स्नान माँगती है !!

पागल और दीवानॆ बन कर,यूँ गलियॊं मॆं मत घूमॊ !
भगतसिंह सुखदॆव सरीखॆ, फांसी कॆ फन्दॊं कॊ चूमॊ !!
बड़ॆ भाग्य सॆ पाया है यॆ, जीवन सार्थक कर जाऒ !
माँग रही बलिदान भारती,उसकी खातिर मर जाऒ !!
आवाहन कर युवा क्रांति का, अब आगॆ बढ़ जाऒ !
तुम्हॆं कसम है भारत माँ की,दुश्मन पर चढ़ जाऒ !!
भारत की यह पावन धरती,ज़ुल्मॊं का दिवसान माँगती है !
महाँकुम्भ मॆं महाँ-युद्ध कर, यॆ रक्तिम स्नान माँगती है !!

रविवार, 13 जनवरी 2013

आखिर कब तक शहीदों की चिताओं को उपलों से जलाएंगे !!


शहीद हेमराज के परिवार को आज तीन दिन हो गये अनशन करते हुए लेकिन अफ़सोस कि बात है कि सरकार ने किसी भी तरह का कोई प्रयास नहीं किया कि उनका अनशन तुडवाया जाये ! कैसे कोई लोकतांत्रिक सरकार इतनी संवेदनहीन हो सकती है ! यही सोचकर मन दुखी था और आज कुछ भी लिखने का मन नहीं था फिर फेसबुक पर देखा कि विवेक प्रकाश जी ने एक कविता पोस्ट कि जो शहीद हेमराज जी के ऊपर ही लिखी थी ! मुझे अच्छी लगी और आपको शेयर कर रहा हूँ !




आँखें डबडबा गयी दिल रोने लगा कैसा ये हाल हुआ !
सीमा पर फिर शहीद आज किसी माँ का लाल हुआ !!
कौन हैं जिम्मेदार इनकी मौत का एक जवाब दे दो !
कब तक उजडेंगी कोख माओं की कुछ तो हिसाब दे दो !!

दुधमुहाँ बच्चा पिता के प्यार से वंचित हो गया !
सर कटी लाश पर आंचल माँ का रक्त रंजित हो गया !!
सुहाग उजड़ा जिसका वो आज अवाक रह गयी !
पति मिल गया आग में बाकी उसकी राख रह गयी !!

क्रिकेट की इस खेल को कब तक हम खेलेंगे !
आखिर कब तक खंजर माँ के सीनों पर झेलेंगे !!
प्रखर करो आवाज की शाही गलियारा हिल जाए !
मिलकर करो प्रयत्न की वापस रुतवा हमारा मिल जाये !!

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

क्या खुद्दारी से जीना भूल गये हम ,स्वाभिमान भी गँवा बैठे है !


क्या खुद्दारी से जीना भूल गये हम ,आत्मसम्मान भी गँवा बैठे है !
जिनकी खुद कि कोई औकात नहीं ,वो भी हमें औकात बता बैठे हैं !!
काश इंदिरा ,शास्त्री आज जिन्दा होते ,दुश्मन को औकात दिखा देते !
फिर कभी हिम्मत दुश्मन ना करता ,उसे छटी का दूध याद दिला देते !!

गांधी के तीन बंदरों का हाल है ,सबकुछ जानकार भी अंजान  हैं !
दुश्मन हर बार धोखा देता है ,फिर भी कहते है कि वो नादान हैं !!
क्यों मुहंतोड़ जवाब नहीं दे पाते हैं,आखिर हम किस से डरते  हैं !
इन्तजार उसके हमले का क्यों ,हमारी और से क्यों नहीं करते हैं !!

अपने जवानों को हमने खोया है ,उसने तो हमको घात किया है !
भारत माँ का सीना छलनी करके ,हमको गहरा आघात दिया है !!
अब भी हम उसी से आस लगाए हैं ,हमसा कोई नादान ना होगा !
क्यों हम गहरी ख़ामोशी में हैं,ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा !!

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ !!!

हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
मेरा कोई गीत नहीं है किसी रूपसी के गालों पर
मैंने छंद लिखे हैं केवल नंगे पैरों के छालों पर
मैंने सदा सुनी है सिसकी मौन चांदनी की रातों में
छप्पर को मरते देखा है रिमझिम- रिमझिम बरसातों में
आहों कि अभिव्यक्ति रहा हूँ
कविता में नारे गाता हूँ
मै सच्चे शब्दों का दर्पण
संसद को भी दिखलाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ !!

अवसादों के अभियानों से वातावरण पड़ा है घायल
वे लिखते हैं गजरे, कजरे, शबनम, सरगम, मेंहदी, पायल
वे अभिसार पढ़ाने बैठे हैं पीड़ा के सन्यासी को
मैं कैसे साहित्य समझ लूँ कुछ शब्दों कि अय्याशी को
मै भाषा में बदतमीज हूँ
अलंकार को ठुकराता हूँ
और गीत के व्यकरानो के
आकर्षण से कतराता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ !!

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

अपनी भारत माँ का प्यार लिए फिरता हूँ वाणी में !!

केसर घाटी में आतंकी शोर सुनाई देता है 
हिजबुल लश्कर के नारों का जोर सुनाई देता है 
मलयसमीरा मौसम आदमखोर दिखायी देता है 
लालकिले का भाषण भी कमजोर दिखायी देता है !!


भारत गाँधी गौतम का आलोक था 
कलिंग विजय से ऊबा हुआ अशोक था 
अब ये जलते हुए पहाड़ों का घर है बारूदी आकाश हमारे सर पर है 
इन कोहराम भरी रातों का ढ़लना बहुत जरुरी है 
घोर तिमिर में शब्द-ज्योति का जलना बहुत जरुरी है !!

मैं युगबोधी कलमकार का धरम नहीं बिकने दूंगा
चाहे मेरा सर कट जाये कलम नहीं बिकने दूंगा 
इसीलिए केवल अंगार लिए फिरता हूँ
वाणी में आंसू से भीगा अखबार लिए फिरता हूँ 
वाणी में ये जो भी आतंकों से समझौते की लाचारी है
 ये दरबारी कायरता है आपराधिक गद्दारी है
ये बाघों का शरण-पत्र है भेड़, शियारों के आगे वटवृक्षों का शीश नमन है !!

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

सबको नववर्ष मुबारक हो !!

साल था जो पुराना  वो बीत गया , नया क्या गुल खिलायेगा !
कुछ बदलेगा या वही रहेगा ,यह तो भविष्य ही बतलायेगा !!

पुराने ने बहुत सारे जख्म दियें हैं ,नया क्या उनको बदल पायेगा !
नहीं बदलेंगे तो क्या होगा ,नया भी क्या शर्मसार कर जाएगा !!

जो बीत गया वो अतीत हो गया ,वर्तमान को निखारा जाएगा !
अतीत से सबक लेकर क्या , वर्तमान को सुधारा जाएगा !!

साल बदलने से क्या होगा ,जब तक सोच को नहीं बदला जाएगा !
सोच बदलने से समाज बदलेगा ,देश अपने आप बदल जाएगा !!

रुढिवादी सोच बदलनी होगी ,तभी समाज का सुधार हो पायेगा !!
जब तक सोच नहीं बदलेगी ,यूँ ही नारी का शोषण होता जाएगा !!

पुराने ने इतना शर्मसार किया है , नये का भी उल्लास नहीं रहा है !
फिर भी कड़वी यादों को भुलाकर  ,नये का स्वागत होता रहा है !!

उसी परम्परा का निर्वहन करना होगा ,कहना होगा नववर्ष अच्छा हो !
सभी कि भावनाओं का सम्मान रखता हूँ ,कहता हूँ नववर्ष मुबारक हो !!



रविवार, 30 दिसंबर 2012

किधर जा रहा है मेरा देश।।

पीडिता का क्या था दोष, क्यों मर रहे है निर्दोष। 
क्या नहीं संस्कृति रही शेष, किधर जा रहा है मेरा देश।। 


बदल रहा क्यों पूरा परिवेश, किसने  धरा नेताओ का भेष। 

बचा नहीं सभ्यता का अवशेष,किधर जा रहा है मेरा देश।।




कुचला जाता युवाओ का जोश,दिल दिल में फूट रहा आक्रोश। 

अपराधी कर रहे खुले ऐश,किधर जा रहा है मेरा देश।। 




सुन्न प्रशाशन व्यवस्था बेहोश,नियंताओ को क्यों न आता होंश। 

सबक नहीं सिखाता जनादेश, किधर जा रहा है मेरा देश।। 

गरीबो को मिलता सिर्फ रोष, रोज बढ़ता अमीरों का कोष।।
कुटिल चालो से फेलता द्वेष, किधर जा रहा है मेरा देश।।