रविवार, 16 सितंबर 2012

अमेरिकी दबाव में विदेशी पूंजी निवेश !!

जब द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत करीब आया और धुरी राष्ट्रों ( इटली ,जर्मनी और जापान ) की पराजय सुनिश्चित लगने लगी थी तब युद्ध के बाद की अर्थव्यवस्था कैसी बने जिसमे पूंजीवाद सुरक्षित रह सके यह चिंता अमेरिका पर सवार हुयी इसी चिंता को ध्यान में रखते हुए १९४४ में अमेरिका के ब्रेटनवुड्स में भावी अर्थव्यवस्था की रुपरेखा कैसी हो इस पर विचार करने के लिए एक सम्मलेन बुलाया गया यह मूलत: अमेरिकी आयोजन था लेकिन इसमें ब्रिटेन के जाने माने अर्थशास्त्री मेनार्ड कीन्स भी शामिल थे ! उस समय की बाकी देशों की आर्थिक स्थति को देखते हुए जाहिर था कि इस पर अमेरिकी प्रभाव होना स्वाभाविक था ! ब्रिटेन ,फ़्रांस ,जापान , जर्मनी  आदि देशों के शहर ,कृषि व्यवस्थाएं और कल कारखाने सब कुछ तबाह हो चूका था और अमेरिका इस मामले में मजबूत था और जाहिर है कि बाकी देशों के कमजोर होते ही अमेरिका अपने आप ताकतवर हो गया और अमेरिका ने इसी अवसर को अपने लिए भुनाना उचित समझा लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मज़बूरी यह होती है कि कोई भी देश अपने आप में सम्पूर्ण नहीं हो सकता इसलिए अमेरिका की मज़बूरी थी कि यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्थाओं को फिर से खड़ा किया जाए और इन्हें सहायता देकर खड़ा करने के लिए ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कल्पना की गयी थी !

इसी कल्पना के सहारे दो संस्थाओं की स्थापना की गयी विश्व बेंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ! जिनके मुख्यालय अमेरिका में ही थे जो इन संस्थाओं पर अमेरिकी प्रभाव का सीधा अहसास था और इन संस्थाओं का एक ही उद्द्येश्य था कि जर्जर हुयी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से खड़ा करना ! इसी समय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन की स्थापना का लक्ष्य रखा गया लेकिन उस समय इसको मूर्त रूप नहीं दिया जा सका और इसकी जगह गेट ( जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टेरिफ ) बनाया गया जिसका लक्ष्य व्यापार में सलंग्न देशों की सहमति के आधार पर दुनिया के व्यापार को स्थति के अनुसार नियमित करना था लेकिन विश्व व्यापार संगठन बनाने का लक्ष्य सदा इसके सामने रहा और आगे चलकर समझोते के "उरुग्वे चक्र" के पुरे होने पर कई देशों ने गेट  समझोते पर हस्ताक्षर किये जिसके फलस्वरूप विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आया !

द्वितीय विश्व युद्ध के पहले अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मुद्रा विनिमय का आधार ब्रिटेन की मुद्रा "पाउंड स्टर्लिंग " था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन इस स्थति में नहीं था कि वो अपनी मुद्रा कि एवज में सोने और अन्य उत्पादों के रूप में भुगतान कर सके और अमेरिका उस समय इस स्थति में था इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डॉलर को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में विनिमय का आधार बनाया गया और विश्व के ज्यादातर देश डॉलर में व्यापार करने लगे जिसके फलस्वरूप स्वत: ही दुनिया पर अमेरिका का आर्थिक वर्चस्व कायम हो गया और बाद में अमेरिका शीतयुद्ध के कारण विश्व राजनीति में बुरी तरह उलझ गया और उस पर सैनिक और असैनिक दोनों तरह का व्यय बढ़ने लगा और वियतनाम युद्ध के बाद तो उसकी हालत यह हो गयी कि वो अमेरिका से बाहर हो रहे खर्च का भार वो विदेशी मुद्रा से प्राप्त आय से उठाने में अक्षम हो गया तब अमेरिका ने कुटिलता से डॉलर की जमी हुयी धाक का फायदा उठाना शुरू किया और विदेशों में वह भुगतान डॉलर छाप कर करने लगा जिसका परिणाम ये हुआ कि विदेशों में इतना डॉलर जमा हो गया जिसका भुगतान सोने और अन्य उत्पादों में कर पाना अमेरिका के लिए नामुमकिन हो गया और १९७१ में अमेरिका ने घोषणा कर दी कि वो डॉलर के बदले सोना नहीं देगा !

इसके बाद अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ये सुझाव आने शुरू हो गए थे कि विनिमय का आधार एस. डी .आर.(स्पेशल ड्रोइंग राईट ) को बना दिया जाए जो कि एक वैश्विक विनिमय का माध्यम था जो लागू नहीं हो सका जिसका मुख्य कारण अमेरिकी दबाव ही था क्योंकि इसके कारण अमेरिका का वो अधिकार चला जाता जिसके कारण वो मनमाने तरीके से डॉलर छाप कर दुनिया में कुछ भी खरीद सकता है ! इसके बाद पश्चिमी देशों के सामने ये समस्या खड़ी हो गयी कि उनकी केन्द्रीय बेंको में पड़े बेहिसाब डॉलर का क्या किया जाए तो इसके लिए उन्होंने  डॉलर को खपाने की एक नयी तरकीब निकाली और गरीब देशों को मामूली ब्याज दर पर कर्ज देना शुरू किया और इसमें मुख्य भूमिका निभाई अमेरिकी वर्चस्व में काम करने वाली दोनों संस्थाओं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बेंक ने ! इस प्रकार कर्ज देकर जब उनके यहाँ से फ़ालतू पड़े डॉलर को गरीब देशों में पहुंचा दिया और फिर अचानक से कर्ज पर ब्याज दर बढ़ा दी गयी जिसका परिणाम ये हुआ कि गरीब देशों को कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेने की नौबत आ गयी !!

इसके बाद ये हुआ कि इन गरीब देशों पर सीधा दबाव इन दोनों संस्थाओं का आ गया और इन्होने इन गरीब देशों पर अमेरिका के हित साधने के लिए दबाव बनाने शुरू कर दिए जिसका परिणाम ये हुआ कि गरीब देशों को गेट ( विश्व व्यापार संगठन ) के समझोते पर पर हस्ताक्षर करने को मजबूर होना पड़ा और आज ये हालत हो गए कि अब ये तीनो संस्थाएं अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के हित साधने में ही लगी हुयी है और गरीब  देशों को अपने बाजार को इन देशों के लिए खोलने का दबाव निरंतर बना रही है !

जिस तरह से भारत जैसे देश निरंतर अपने बाजार को खुला कर रहे है उन देशों में आगे जाकर भयानक हालात हो सकते है क्योंकि पूंजीवादी अर्थव्यस्था समाज में आर्थिक भेदभाव को बढ़ावा देती है और समाज का सम्पूर्ण रूप से आर्थिक विकास नहीं कर सकती है जिसके कारण समाज में भारी आर्थिक असमानता उत्पन हो सकती है और आने वाले समय के लिए इसके परिणाम घातक हो सकते है !

इस लेख में मैंने आपको द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के घटनाक्रम से इन तीनो संस्थाओं के गठन की पृष्ठभूमि और उसके बाद डॉलर के वर्चस्व का घटनाक्रम इसलिए बताया है ताकि आप ये जान सके कि अमेरिका की आर्थिक मजबूती का राज क्या है और ये तीनो संस्थाएं किस तरह से अमेरिकी हित साधती है अगर ऐसा नहीं होता तो ये संस्थाए बाकी देशों के हितों को देखते हुए डॉलर को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए अब तक कतई स्वीकार नहीं करती लेकिन ऐसा नहीं किया गया जिसका मूल कारण यही है की इन संस्थाओं में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के हित ही साधे जाते है इसलिए आप ये तो भूल ही जाइए कि इन संस्थाओं के साथ किये गए समझोतों और उसके आधार पर होने वाले विदेशी पूंजी निवेश से भारत को लाभ हो सकता है !



8 टिप्‍पणियां :

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

पूरण जी, पूँजी स्वदेशी ही है ,काली होकर बाहर गई थी अब गोरी होकर लौटेगी ! हाँ, निवेशकर्ता हाथ विदेशी हैं ! इसे कहते है कुटिलों की कूटनीति !.

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

इन राजनितिक चालों और मजबूरियों में मेरे भारत को ठगा जा रहा है !!

Unknown ने कहा…

पूरण खंडेलवाल जी,आप ने इस बारे में बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख लिखा है,इसी तरह लोगों को जागरूक करते रहें.आभार.


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ZEAL ने कहा…

काश हमारी कूप मंडूक जनता विदेशी निवेश की इस जालसाजी को समझ पाती !

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

जनता धीरे धीरे समझ रही है लेकिन जब तक जनता पूरी समझे तब तक देर ना हो जाए !!

HAKEEM YUNUS KHAN ने कहा…

देश हित आगे और अपने पराये का भेद पीछे रहना ही चाहिए।

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

युनुस जी बिलकुल सही बात है !!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जानते हुवे भी लोग कुछ करना नहीं चाहते ...
स्वार्थ देखते हैं सभी अपना ओपन ...