बेशक तुमने अपमान किया,खण्डित भारत का मान किया॥
यह वंदेमातरम सम्प्रदाय का परिचायक है,कैसे मान लिया॥
आओ,मै तुम्हे बताता हूँ,इस वंदेमातरम की सत्ता।
तुमको उसका भी ज्ञान नहीँ जो जान चुका पत्ता-पत्ता॥
जो ज्ञानशून्य भू पर बरसी,बन,शून्य-ज्ञान की रसधारा।
दशमलव दिया इसने तब,जब था बेसुध भूमण्डल सारा॥
जब तुमलोगोँ के पुरखोँ को ईमान का था कुछ भान नहीँ।
कच्चा ही बोटी खाते थे, वस्त्रोँ का भी था ज्ञान नहीँ।
जंगल-जंगल मेँ पत्थर ले, नंगे-अधनंगे फिरते थे।
सर्दी-गर्मी-वर्षा अपने उघरे तन बदन पर ही सहते थे।।
तब वंदेमातरम के साधक, माँ चामुण्डा के आराधक।
अज्ञान तिमिर का जो नाशक,था ढूँढ़ लिया हमने पावक॥
मलमल के छोटे टुकड़े से, उन्मत्त गजोँ को बाँध दिया।
दुःशासन का पौरुष हारा, पट से पाञ्चाली लाद दिया॥
जब वंदेमातरम संस्कृति को था किसी सर्प ने ललकारा।
तब लगा अचानक ही चढ़ने जनमेजय के मख का पारा॥
यह वंदेमातरम उसी शक्तिशाली युग की शुभ गाथा है।
जिसके आगे भू के सारे नर का झुक जाता माथा है॥
इसका प्रथमाक्षर चार वेद,द्वितीयाक्षर देता दया,दान।
तृतीयाक्षर माँ के चरणोँ मेँ,अर्पित ऋषियोँ का तप महान॥
पञ्चम अक्षर रणभेरी है,अंतिम मारु का मृत्युनाद।
चिर उत्कीलित यह मंत्र मानवोँ की स्वतंत्रता का निनाद॥
जो स्वतंत्रता का चरम मंत्र,जो दीवानोँ की गायत्री।
जो महाकाल की परिभाषा,भारत माँ की जीवनपत्री॥
जो बलिदानोँ का प्रेरक है,जो कालकूट की प्याली है।
जो है पौरुष का बीजमंत्र, जिसकी देवी माँ काली है॥
जो पृथ्वीराज का क्षमादान, गोरी का खण्डित हुआ मान।
जो जौहर की हर ज्वाला है, जो आत्मत्याग की हाला है॥
जिसमेँ ऋषियोँ की वाणी है, जो शुभदा है, कल्याणी है।
जो राष्ट्र-गगन का इन्द्रधनुष,उच्चारण मंगलकारी है॥
जिसमेँ दधीचि की हड्डी है, हाँ,हाँ जिसमेँ खुद चण्डी है।
जो पुरुषोत्तम का तीर धनुष,हाँ जिसमेँ हैँ नल,नील,नहुष॥
राणा-प्रताप का भाला है, विष कालकूट ने डाला है।
जो प्रलय मचाने वाला है,इसको विद्युत ने पाला है॥
इसमेँ शंकर का दर्शन है, जिसका भावार्थ समर्पण है।
जो बजरंगी का ब्रम्हचर्य, जो आत्मबोध का दर्पण है॥
यह वागीश्वरी का सौम्य तेज,अम्बर से झरता झर-झर है।
यह चामुण्डा के हाँथो मेँ शोणित छलकाता खप्पर है॥
जो मनुपुत्रोँ के लिये स्वर्ग, सर्वात्मवाद की धुरी रही।
जिसमेँ देवोँ की दैविकता अमृत बरसाती सदा रही॥
उस ऐक्य मंत्र के ताने को,तेजस्वी गैरिक बाने को।
उर्जा की दाहक गर्मी को, उस मानवता को,नरमी को॥
गंगाधर के शिव स्वपनोँ मेँ, नेताजी के बलि भवनोँ मेँ।
गौतम के मंगल कथनोँ मेँ, मीरा के सुन्दर भजनोँ मेँ॥
यह किसने आग लगाया है, जग को उल्टा बतलाया है॥
यह वंदेमातरम शब्द नहीँ यह भारत माँ की पूजा है।
माँ के माथे की बिँदिया हैश्रृंगार न कोई दूजा है॥
इसमेँ तलवार चमकती है मर्दानी रानी झाँसी की।
इसमेँ बलिदान मचलता है,दिखती हैँ गाँठे फाँसी की॥
मंगल पाण्डे की यादेँ हैँ।शिवराज नृपति की साँसेँ हैँ॥
यह बिस्मिल के भगवान वेद।यह लौह पुरुष का रक्त स्वेद॥
यह भगत सिँह की धड़कन है।आजाद भुजा की फड़कन है॥
यह गंगाधर की गीता है, चित्तू पाण्डे सा चीता है।
जलियावाला की साखी है।हुमायूँ बाहु की राखी है॥
यह मदनलाल की गोली है।मस्तानी ब्रज की होली है॥
यह चार दिनोँ के जीवन मेँ चिर सत्य,सनातन यौवन है।
यह बलिदानोँ की परम्परा अठ्ठारह सौ सत्तावन है॥
हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसा के बन्दे सब इसको गाते हैँ।
सब इसे सलामी देते हैँ,इसको सुन सब हर्षाते हैँ॥
लेकिन कुछ राष्ट्रद्रोहियोँ ने है इसका भी अपमान किया।
इस राष्ट्रमंत्र को इन लोगोँ ने सम्प्रदाय का नाम दिया॥
जाओ,जाकर पैगम्बर से पूछो तो क्या बतलाते हैँ?
वे भी माता के पगतल मेँ जन्नत की छटा दिखाते हैँ।
यह देखो सूली पर चढ़कर क्या कहता मरियम का बेटा।
हे ईश्वर इनको क्षमा करो जो आज बने हैँ जननेता।।
ये नहीँ जानते इनकी यह गल्ती क्या रंग दिखलायेगी।
इस शक्तिमंत्र से वञ्चित हो माँ की ममता घुट जायेगी॥
गोविन्द सिँह भी चण्डी का पूजन करते मिल जायेँगे।
शिव पत्नी से वर लेकर ही संघर्ष कमल खिल पायेँगे।
फिर बोलो माँ की पूजा का यह मंत्र कम्यूनल कैसे है?
माँ को महान कहने वाला शुभ तंत्र कम्यूनल कैसे है?
तुम केवल झूठी बातोँ पर जनमानस को भड़काते हो।
गुण्डोँ के बल पर नायक बन केवल विद्वेष लुटाते हो॥
लेकिन,जब यह घट फूटेगा।जब कोप बवंडर छूटेगा॥
जब प्रलय नटी उठ नाचेगी।भारत की जनता जागेगी॥
तब देश मेँ यदि रहना होगा।तो वंदेमातरम कहना होगा॥
(रचनाकार ....... मनोज कुमार सिँह ‘मयंक’)
5 टिप्पणियां :
मनोज मयंक जी को लाख लाख साधुवाद -
भयंकर गर्जन करती-
हकीकत-
शुभकामनायें आदरणीय |
सुन्दर .सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुति विवाहित स्त्री होना :दासी होने का परिचायक नहीं आप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
राष्ट्रगीत बन्दे मातरम के ऊपर साम्प्रदायिक ठप्पा लगना तो स्वभाविक ही है जबकि भारत की सरकार भारत के असल नागरिक को ही सामप्रदायिक घोषित करने पर उतारु हो तो फिर राष्ट्रवादी विचार का प्रणेता यह राष्ट्रगीत कहाँ बच सकता है ।
खैर हमें साम्प्रदायिक कहे जाने की कोई चिन्ता नही ।
बधाईयाँ आपको जो आपने श्री मनोज मयंक जी की इस प्रेरणा प्रद कविता को हमारे साथ शेयर किया ।
श्री मनोज कुमार जी को भी बारम्बार बधाईयाँ जो इतनी सारगर्भित कविता लिखी ।कल के ओजस्वी वाणी के सम्पादकीय में यह कविता होगी आप भी वहाँ पधारे आभार
राष्ट्रगीत वह राष्ट्रगीत है जिसने था अलख जगाया
भारत माँ के मस्तक को ऊचा जिसने करबाया
पैदा करके वीर प्रवर जिसने जगती में अलख जगाया
मात्र चरण पर तब वीरों ने अपना लहू चढ़ाया
यही गीत है जिसको गा शहीद चढ़ गये फाँसी
अरे वाह..मेरी कविता शंखनाद पर...पूरण जी का हार्दिक आभार जो उन्होंने इस कविता को मेरे नाम के साथ यहाँ प्रस्तुत किया...हर हर महादेव
मनोज कुमार सिंह "मयंक" जी में ऐसी अच्छी कवितायें अपनें ब्लॉग पर संग्रह करता हूँ जो मुझे अच्छी लगती है ! आप मेरे ब्लॉग पर आये और अपनी ही कविता पर टिप्पणी दी इसके लिए आपका आभारी हूँ !!
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