महापुरुषों नें कहा है कि विवेकहीन मनुष्य अपने साथ साथ दूसरों का अनर्थ भी करता है और जो अपने विवेक का उपयोग नहीं करके किसी के अंधानुकरण में लगा हो उसे क्या आप विवेकहीन नहीं कहेंगे ! अभी दो दिन पहले मदर्स डे अथवा हिंदी में माँ दिवस था और मुझे भी फेसबुक पर मदर्स डे की बधाई के कई सन्देश मिले जिन्होंने वाकई मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि आखिर क्या कारण है कि हम अपने विवेक का सदुपयोग नहीं करके बिना सोचे समझे पाश्चात्य देशों के अन्धानुकरण के लिए अपने को झोंके जा रहे है ! क्या वाकई हम भारतियों में विवेक की कमी है जो हम सोच भी नहीं पा रहे हैं ! शायद हमसे ज्यादा विवेकशील व्यक्ति तो लार्ड मेकाले था जिसनें अपनें पिता को लिखे पत्र में पहले ही यह बात बता दी थी कि में जो शिक्षा व्यवस्था लागू करनें जा रहा हूँ वो अगर कामयाब हुयी तो उसके तहत पढ़ने वाले शरीर से तो भारतीय होंगे लेकिन मन से वो अंग्रेज ही होंगे ! और आज ठीक वैसा ही हो रहा है !
में इस तरह से मनाने वाले किसी भी दिवस का विरोधी हूँ क्योंकि मेरी संस्कृति में यह कतई नहीं सिखाया जाता है कि एक दिवस के तौर पर मनाकर और दिखावा करके हम अपनें कर्तव्य कि इतिश्री कर लें ! बल्कि मैंने मेरी संस्कृति से अनवरतता का भाव ही सिखा है और वही सही भाव है ! भारतीय संस्कृति में तो माँ के लिए इतना आदर का भाव है कि उसके लिए सारी उपमाँ छोटी पड़ जाती है और कहा भी गया है कि जो शब्द ही खुद माँ के बिना अधूरा है भला उसी माँ के लिए कैसे कोई उपमाँ दे सकता है ! और यही हाल माँ कि महिमाँ के मामले में है वो भी माँ के बिना अधूरा है फिर कोई कैसे माँ कि महिमाँ को शब्दों में व्यक्त कर सकता है ! माँ के प्रति ऐसा आदरपूर्ण भाव हमें हमारी संस्कृति सिखाती है और केवल एक दिन के लिए नहीं बल्कि सदा सदा के लिए हमें माँ के प्रति आदरभाव रखने के लिए प्रोत्साहित करती है !
हमारी संस्कृति में यह माना जाता है कि पुत्र अगर अपने शरीर की चाम की खाल से जूतियाँ बनाकर भी माँ को पहना दे तो भी वो माँ के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता है ! फिर भला क्यों हम उन पश्चिमी देशों के अंधानुकरण कर रहे हैं जहां पर आज से ४००-५०० साल पहले तक वहाँ के लोगों को यही पता नहीं रहता था कि उनके माँ कौन है और पिता कौन है ! इसी तरह से पिछले दिनों अर्थ डे अथवा धरती दिवस मनाया गया जिस पर कई लोगों नें अपने विचार भी रखे ! लेकिन पाश्चात्य देश तो एक दिन अर्थ डे मनाकर अपना दिखावा करके अपने कर्तव्य कि इतिश्री कर लेते हैं जबकि हमें तो हमारी संस्कृति ही इसकी सतत प्रेरणा देती है और प्रकृति के सबसे करीब ही भारतीय संस्कृति है ! हमारे यहाँ तो सदियों से चली आ रही चिकत्सा व्यवस्था आयुर्वेद तो पूर्णतया प्रकृति पर ही आश्रित है !
देखा जाए तो तक़रीबन हर डे का यही हाल है इसलिए हमें किसी का अंधानुकरण करनें कि आवश्यकता नहीं है बल्कि जो अच्छा हो वही लेने कि आवश्यकता है लेकिन हमारा दुर्भाग्य या विवेकहीनता कह लीजिए कि हम अच्छा तो ले नहीं पा रहे हैं लेकिन वो बातें जरुर ग्रहण करते जा रहें है जिनकी हमें कोई आवश्यकता ही नहीं है ! दरअसल हमारी शिक्षा व्यवस्था ही हमारी विवेकशीलता को चाट रही है जिसमें हर जगह यह बताया जाता है कि अंग्रेज हमसे ज्यादा बुद्धिमान थे और बालमन से बताई गयी वही बातें हमारे दिलोदिमाग में घर कर जाती है ! हमें इस विवेकहीनता से बाहर निकलकर अपनें विवेक का इस्तेमाल करते हुए देखना होगा कि हमारी संस्कृति हमें क्या सिखाती है और क्या पश्चिमी संस्कृति हमें कुछ उससे बेहतर सिखाती है या नहीं !
3 टिप्पणियां :
अच्छा आलेख पूरण जी,आपका आभार।
बिल्कुल सही कहा है आपने ..आभार अक्षय तृतीया की शुभकामनायें!.अख़बारों के अड्डे ही ये अश्लील हो गए हैं .
आभार !!
एक टिप्पणी भेजें