सोमवार, 5 नवंबर 2012

मैंने क्यूँ गाये हैं नारे


मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||
जब दामन बेदाग न हो जी ,अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी,जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी,जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे,संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे,भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो,ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,,पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे,रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

निर्वाचन लड़ते हैं नारे,चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे,कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,,सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे,घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,,दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे,नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने ,को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने,को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

परशुराम को आने दो !!

कैकॆई नॆं वर मॆं माँगा था ,वन कॆवल चौदह वर्षॊं का,
पर गद्दारॊं नॆं है गला दबाया,मर्यादाऒं का आदर्शॊं का,
भारत मॆं ही भरत-बंधु कॊ, आजीवन वनवास मिला,
मिला कंस कॊ सिंहासन, कान्हा कॊ कारावास मिला,
घर-घर मॆं अग्नि-परीक्षा, अब दॆती अगणित सीतायॆं,
मंदिर-मंदिर सिसक रही, अब वॆद-व्यास की गीतायॆं,

युवा-शक्ति कॆ गर्जन सॆ अब,संसद की दीवारॆं थर्रानॆ दॊ !!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ, तुम परसुराम कॊ आनॆ दॊ !!१!!

 बचपन सॆ ही उन कानॊं मॆ, भारत माँ की लॊरी भर दॊ,
हाँथॊं मॆं दॆ तलवार भाल पर,इस मिट्टी की रॊरी धर दॊ,
फ़ौलाद बना दॊ उनकॊ अब, भर कर बारूद विचारॊं का,
हरॆक अधर पर मंत्र जगाऒ, अब इंक्लाब कॆ नारॊं का,
भ्रष्टाचारी गद्दारॊं का अंतिम, अध्याय बनाना ही हॊगा,
भारत दॆश बचाना है तॊ, क्रान्ति-शंख बजाना ही हॊगा, 

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ

मेरा गीत चाँद है ना चाँदनी
न किसी के प्यार की है रागिनी
हंसी भी नही है माफ कीजिये
खुशी भी नही है माफ कीजिये
शब्दचित्र हूँ मैं वर्तमान का
आइना हूँ चोट के निशान का
मै धधकते आज की जुबान हूँ
मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की !!

चर्चा है अख़बारों में
टी.वी. में बाजारों में
डोली, दुल्हन,कहारों में
सूरज,चंदा,तारों में
आँगन, द्वार, दिवारों में
घाटी और पठारों में
लहरों और किनारों में
भाषण-कविता-नारों में
गाँव-गली-गलियारों में
दिल्ली के दरबारों में
धीरे-धीरे भोली जनता है बलिहारी मजहब की
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की

मैं होता हूँ बेटा एक किसानी का
झोंपड़ियों में पाला दादी-नानी का
मेरी ताकत केवल मेरी जुबान है
मेरी कविता घायल हिंदुस्तान है
मुझको मंदिर-मस्जिद बहुत डराते हैं
ईद-दिवाली भी डर-डर कर आते हैं
पर मेरे कर में है प्याला हाला का
मैं वंशज हूँ दिनकर और निराला का

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का !!



कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का !
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है !!

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो !
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो !!

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में !
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं !!

शनिवार, 11 अगस्त 2012

घायल भारत माता की तस्वीर दिखाने लाया हूँ !!


मैं भी गीत सुना सकता हूँ , शबनम के अभिनन्दन के,
मैं भी ताज पहन सकता हूँ नंदन वन के चन्दन के
लेकिन जब तक पगडण्डी से संसद तक कोलाहल है
तब तक केवल गीत लिखूंगा जन गन मन के क्रंदन के

जब पंछी के पंखो पर हो पहरे बम और गोली के
जब पिंजरे में कैद पड़े हो सुर कोयल की बोली के
जब धरती के दामन पर हो दाग लहू की होली के
कोई कैसे गीत सुना दे बिंदिया कुमकुम रोली के
मैं झोपड़ियों का चारण हूँ आंसू गाने आया हूँ
घायल भारत माता की तस्वीर दिखाने लाया हूँ

बुधवार, 8 अगस्त 2012

इसीलिए मैं केवल अग्नीगंधा गीत सुनाता हूँ !!


मैं ताजों के लिये समर्पण, वंदन गीत नहीं गाता
दरबारों के लिये कभी अभिनन्दन-गीत नहीं गाता
गौण भले हो जाऊँ लेकिन मौन नहीं हो सकता मैं
पुत्र- मोह में शस्त्र त्याग कर द्रोण नहीं हो सकता मैं
कितने भी पहरे बैठा दो मेरी क्रुद्ध निगाहों पर
मैं दिल्ली से बात करूँगा भीड़ भरे चौरोहों पर

दिल्ली को कोई आतंकी जादू- टोना लगता है
गीता-रामायण का भारत बौना -बौना लगता है
विस्फोटों की अपहरणों की स्वर्णमयी आजादी है
रोज गौडसे की गोली के आगे कोई गाँधी है
मैनें भू पर रश्मिरथी का घोड़ा रुकते देखा है
पाँच तमंचों के आगे दिल्ली को झुकते देखा है

हम पूरी दुनिया में बेचारे- से हैं
अपमानों की ठोकर के मारे- से हैं
मजबूरी संसद की सीरत लगती है
अमरीका की चौखट तीरथ लगती है
मैं दिनकर का वंशज दिल्ली को दर्पण दिखलाता हूँ
इसीलिए मैं केवल अग्नीगंधा गीत सुनाता हूँ

शनिवार, 4 अगस्त 2012

राजनीति सांप और नेवले का खेल है !!

गाँधी के विरोधियों पुजारियों का मेल है
राजनीति सांप और नेवले का खेल है
काँग्रेसियों का देखो आज तुम कमाल जी
धीरे-धीरे पूरी काँग्रेस है हलाल जी
कोई पश्चाताप नहीं ना कोई मलाल जी
क्या हुआ जो जूतियों में बाँट रही है दाल जी


कांग्रेस नेहरु और गोखले की जान थी
कांग्रेस इंदिरा जी की आन-बान-शान थी
कांग्रेस गाँधी जी तिलक का स्वाभिमान थी
कल स्वतंत्रता -सेनानी होने का प्रमाण थी
काँग्रेस अरुणा आसिफ अली का ईमान थी
कांग्रेस भारती की पूजा का सामान थी
कांग्रेस भिन्नता में एकता की तान थी
पूरे देश को जो बांध सके वो कमान थी

शनिवार, 28 जुलाई 2012

घाटी के दिल की धड़कन !!


काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधो के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूँ
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूँ
मैं अभिधा की परम्परा का चारण हूँ
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूँ

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

आशा का दीपक -रामधारी सिंह दिनकर

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है;
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है।
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से;
चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से।
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है;
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है।

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

सोमवार, 16 जुलाई 2012

चंद्रशॆखर "आज़ाद"


सूरज कॆ वंदन सॆ पहलॆ,धरती का वंदन करता था,
इसकी पावन मिट्टी सॆ,माथॆ पर चन्दन करता था,
इसकी गौरव गाथाऒं का,वॊ गुण-गायन करता था,
आज़ादी की रामायण का,नित्य पारायण करता था,

संपूर्ण क्रांन्ति का भारत मॆं, सच्चा जन-नाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥

भारत माँ का सच्चा बॆटा,आज़ादी का पूत वही था,
उग्र-क्रान्ति की सॆना का,संकट-मॊचन दूत वही था,
आज़ादी की खातिर जन्मा, आज़ादी मॆं जिया मरा,
गॊली की बौछारॊं सॆ वह, शॆर-बब्बर ना कभी डरा,

कपटी कालॆ अंग्रॆजॊं का खत्म, कुटिल उन्माद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥

इस सॊनॆ की चिड़िया कॊ,खुलॆ-आम जॊ लूट रहॆ थॆ,
उस कॆ कॆहरि-गर्जन सॆ ही,सबकॆ छक्कॆ छूट रहॆ थॆ,
उस मतवालॆ की सांसॊं मॆं, आज़ादी थी, आज़ादी थी,
हर बूँद रुधिर की उस की, आज़ादी की उन्मादी थी,

यह राष्ट्र-तिरंगा भारत का, तब तक आबाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥

अधिकारॊं की खातिर मरना,सिखा गया वह बलिदानी,
स्वाभिमान की रक्षा मॆं, सबकॊ दॆनी पड़ती है कुर्वानी,
मुक्त-हृदय सॆ उसकी गौरव,गाथा का अभिनंदन करलॆं,
भारत माँ कॆ उस बॆटॆ कॊ,आऒ सत-सत वंदन करलॆं,

भारत की सीमाऒं पर कॊई,निर्णायक संवाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥

कवि-राज बुन्दॆली