एक गाँव में एक पण्डित जी अपनी पंडिताईन के साथ रहते थे ! पण्डित जी गाँव में पूजा और अन्य धार्मिक कार्य करवाते थे ! उन पण्डित जी के मन में जातिवाद और उंच नीच की भावना कूट-कूट कर भरी हुयी थी ! लेकिन पंडिताईन समझदार थी। समाज की विकृत रूढ़ियों को नही मानती थी।एक दिन पण्डित जी को प्यास लगी। संयोगवश् घर में पानी नही था। इसलिए पण्डिताइन पड़ोस से पानी ले आयी।
( पानी पीकर पण्डित जी ने पूछा। )
पण्डित जी- कहाँ से लाई हो। बहुत ठण्डा पानी है।
पंडिताईन जी- पड़ोस के कुम्हार के घर से।
पण्डित जी ने यह सुन कर लोटा फेंक दिया और उनके तेवर चढ़ गये। वे जोर-जोर से चीखने लगे।
पण्डित जी- अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। कुम्हार के घर का पानी पिला दिया।
( पंडिताईन भय से थर-थर काँपने लगी, उसने पण्डित जी से माफी माँग ली। )
पंडिताईन- अब ऐसी भूल नही होगी।
( शाम को पण्डित जी जब खाना खाने बैठे तो पंडिताईन ने उन्हें सूखी रोटियाँ परोस दी। )
पण्डित जी- सब्जी नहीं बनाई ?
पंडिताईन जी- बनाई तो थी , लेकिन फेंक दी क्योंकि जिस हाँडी में सब्जी बनाई वो तो कुम्हार के घर की थी !
पण्डित जी- तू तो पगली है। कहीं हाँडी में भी छूत होती है?
( यह कह कर पण्डित जी ने दो-चार कौर खाये और बोले-)
पण्डित जी- पानी तो ले आ।
पंडिताईन जी- पानी तो नही है जी।
पण्डित जी- घड़े कहाँ गये?
पंडिताईन जी- वो तो मैंने फेंक दिये। कुम्हार के हाथों से बने थे ना।
(पण्डित जी ने फिर दो-चार कौर खाये और बोले-)
पण्डित जी- दूध ही ले आ। उसमें ये सूखी रोटी मसल कर खा लूँगा।
पंडिताईन जी- दूध भी फेंक दिया जी। गायको जिस नौकर ने दुहा था, वह भी कुम्हार ही था।
पण्डित जी- हद कर दी! तूने तो, यह भी नही जानती दूध में छूत नही लगती।
पंडिताईन जी- यह कैसी छूत है जी! जो पानी में तो लगती है, परन्तु दूध में नही लगती।
(पण्डित जी के मन में आया कि दीवार से सर फोड़ ले, गुर्रा कर बोले-)
पण्डित जी- तूने मुझे चौपट कर दिया। जा अब आँगन में खाट डाल दे। मुझे नींद आ रहीहै।
पंडिताईन जी- खाट! उसे तो मैंने तोड़ कर फेंक दिया। उसे नीची जात के आदमी ने बुना था ना।