बुधवार, 1 मई 2013

धीरे धीरे कमजोर होती न्याय कि बुनियाद !!

कल जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधिपति नें सीबीआई पर तंज कसते हुए कहा था कि आपने तो इस तरह हमारी बुनियाद को ही हिलाकर रख दिया है वो केवल न्यायाधिपति कि तल्ख़ टिप्पणी ही नहीं थी बल्कि उस टिप्पणी के माध्यम से न्यायाधीश महोदय कि वो दर्द अथवा चिंता भी झलकती है जो न्यायालयों पर आम जनता के कम होते विश्वास के कारण पैदा हुयी है ! भले लोगों को न्याय दिलाने में न्यायालय का सहयोग जांच एजेंसियां करती है लेकिन आम जनता तो न्याय पाने कि अंतिम आशा न्यायालयों से ही पालता है ! और न्यायालय उन्ही जांच एजेंसियों द्वारा उपलब्ध करवाए गए सबूतों और तथ्यों के आधार पर फैसले सुनाते हैं !

इस तरह न्याय और अन्याय का फैसला भले ही न्यायालय करे लेकिन उस न्याय कि बुनियाद तो जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली और निष्पक्षता पर ही टिकी हुयी है ! अब अगर उन्ही जांच एजेंसियों कि नाकामी अथवा मिलीभगत के कारण न्याय नहीं मिलता तो लोगों का न्याय और न्यायालयों पर से विश्वास डगमगा जाता है क्योंकि आम आदमी तो न्यायालयों से न्याय कि आशा पाले रखता है  और अगर वहाँ से उसे निराश होना पड़ता है तो स्वाभाविक है कि आमजन में तो न्यायालय में बैठे न्यायाधीशों के प्रति क्षोभ और गुस्से का भाव ही पैदा होता है ! अब भले ही उन्हें न्याय नहीं मिलने के पीछे जांच एजेंसियों कि नाकामी और मिलीभगत ही क्यों नहीं हो !

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कि तंज भरी टिपण्णी कि सच्चाई को कल कि उस घटना से जोड़ा जा सकता है कि कैसे २९ वर्षों से न्याय कि आशा पाले १९८४ के सिख दंगापीड़ितों का दर्द उस समय विरोध के रूप में उफान पर आ गया जब दिल्ली कि एक अदालत नें १९८४ के सिख दंगो के आरोपी  सज्जन कुमार को बरी करने का फैसला सुनाया गया ! क्षोभ और गुस्से की परिणति का शिकार न्यायाधीश को भी उस समय होना पड़ा जब एक युवक नें गुस्से में आकर न्यायाधीश पर जूता चला दिया ! उस मामले कि जांच भी उसी सीबीआई ने की थी जिसके ऊपर प्रहार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश नें यह टिप्पणी की थी कि आपने तो इस तरह से हमारी बुनियाद को ही हिलाकर रख दिया है ! अब ऐसे में अगर उन दंगापीड़ितों को २९ साल बाद भी न्याय नहीं मिलता तो उनके क्षोभ और गुस्से को कैसे गैरवाजिब माना जाए !