राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना मानव सभ्यता का इतिहास। प्रमाणों से ज्ञात है कि राजस्थान का आदि - निवासी पूर्व - प्रस्तर युगीन मानव था। सरस्वती, चम्बल, बनास, तथा लूनी नदियों तथा अरावली की श्रेणियों के किनारों और गड्ढ़ों में जमी हुई परतें तथा उनके आस - पास के क्षेत्रों में मिलने वाली पत्थरों के औजार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यहाँ का आदि - मानव इन नदियों के तटों और अरावली पर्वत की उपत्यकाओं में कम से कम एक लाख वर्ष पूर्व रहता था। कालांतर में इस पूर्व प्रस्तरकालीन मानव ने उत्तर - प्रस्तरकालीन युग में प्रवेश किया। इस समय तक वह भौंडे औजारों के बजाए पैने एवं चमकीले औजारों को बनाना सीख गया था। मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग तथा चमड़े एवं वल्कल के वस्रों का प्रयोग वह जान चुका था। इसी प्रकार घास -फूस की झोपड़ियों का घर बनाकर रहने की विधि वह जान चुका था। अन्तत: पूर्व - प्रस्तर कालीन मानव से उत्तर प्रस्तर युगीन मानव में कुछ अन्तर आ चुका था। वह कन्दराओं के बजाय नदी - तटों के खुले स्थानों पर घास - फूस - बाँस की झोंपड़ी बनाकर प्रागैतिहासिक स्थापत्य का जन्मदाता बना और वही उस युग की संस्कृति का द्योतक है। आज भी राजस्थान के घने - जंगली, रेतीले बीहड़ पहाड़ी भागों में रहने वाले आदिवासियों के समुह - समुदाय ऐसे स्थापत्य का प्रयोग करते हैं। कालांतर में प्रस्तर - युगीन मानव प्रस्तर धातु युग में प्रवेश कर गया। स्थापत्य की धुंधली एवं अन्धकारपूर्ण अवस्था में अब समाप्त होती है और राजस्थान की स्थापत्य संस्कृति एक दम आगे बढ़ती है। यहाँ आकर स्थापत्य का एक विशेष रुप देखने को मिलता है। गंगानगर जिले में कालीबंगा और सौंथी में पुरातत्व सम्बन्धी खुदाईयों से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ॠगवेद काल से कई सदियों पूर्व सरस्वती एवं दृषद्वति, जिन्हें आजकल घघ्घर और छटूंग कहते हैं के काठे पर जीवन सक्रिय था। इन काठों की उपजाऊ स्थिती अच्छी होने के कारण यहाँ की सभ्यता सक्रिय थी तथा यहाँ की संस्कृति उच्चकोटी की थी। इस प्रान्त के कई रेतीले ढेरों में उन्नत सभ्यता के केन्द्र ढ़ंके पड़े थे। इन ढ़ेरों की खुदाई से प्रमाणित है कि ये समृद्ध सभ्यता के केन्द्र किसी विशेष शैली के अनुरुप बने थे जिनमें हड़प्पा और स्थानीय स्थापत्य की विशेषताओं का समावेश था। यहाँ की चौड़ी सड़कें, सार्वजनिक नालियाँ, दुर्ग का प्राकार, गोल कुएँ, क्रमिक अन्तर वाली नालियाँ, गलियाँ, छोटे - बड़े सटे हुए मकान, वेदियाँ आदि उस युग की शालीन स्थापत्य के साक्षी हैं। दीवारें कच्ची तथा सूर्यतापी ईंटों की होती थी। सड़के विशेष प्रकार के गोल मिट्टी के ढेलों से कड़ी की जाती थी, मकानों के द्वार छोटे होते थे और घरेलू पानी निकलने की व्यवस्था रहता थी। दुर्ग, आंगन, प्राकार वेदी आदि से सांस्कृतिक सम्पन्नता के अच्छे प्रमाण यहाँ देखने को मिलते हैं।
सरस्वती सभ्यता के बाद दक्षिण - पश्चिमी राजस्थान की संस्कृति का जन्म हुआ। यह संस्कृति भी ऐतिहासिक काल तक अनेक रुपों में विकसित होती रही। आहड़, गिलूँड आदि केन्द्र इस सभ्यता के केन्द्र रहे। यहाँ के मकान, छतें, द्वार, बाँस की दीवारें . भौंडे पत्थरों के आंगन तथा दीवारें उस युग के स्थापत्य पर पूरा प्रकाश डालते हैं। मकानों में खिड़कियाँ, द्वार, बरामदे, खुले चौक आवास की पूरी इकाई बनाते थे जो यहाँ की समृद्ध अवस्था पर प्रकाश डालते हैं। ताँबे के कतिपय खानों के निकट होने से खनन कार्य में लगे हुए मानव का बोध होता है। आज भी इसका पुराना नाम ताम्रवती नगरी से जाना जाता है।
इसी प्रकार पौराणिक सभ्यता के युग में राजस्थान के कई सांस्कृतिक केन्द्रों को बोध होता है जिनमें पुष्कर, मसध्वन जाँगल, मत्स्य, साल्व, मरुकांतार आदि प्रमुख हैं। इनसे सम्बन्धित उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्बुद, पुष्करारण्य, बागड़ आदि भागों में जहाँ - जहाँ नगरों के विकास हुआ, वहाँ नगर के चारों तरफ खाईयाँ तथा प्राकारों के निर्माण हुए तथा नगरे में प्रासाद, भवन, वापिकाओं तथा उद्यानों की व्यवस्था रखी गई। पहाड़ी तथा जंगल में बसने वाली बस्ती में घास -फूस, बाँस, खपरैल के मकान बने जिन्हें काँटेदार झाड़ियों से सुरक्षित रखा जाता था। इस प्रकार के स्थापत्य से अनुमान है कि उस समय तक नागरिक एवं ग्रामीण स्थापत्य का स्वभाव विकसित हो चुका था और उसके सामंजस्य से एक उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म हुआ।
सरस्वती सभ्यता के बाद दक्षिण - पश्चिमी राजस्थान की संस्कृति का जन्म हुआ। यह संस्कृति भी ऐतिहासिक काल तक अनेक रुपों में विकसित होती रही। आहड़, गिलूँड आदि केन्द्र इस सभ्यता के केन्द्र रहे। यहाँ के मकान, छतें, द्वार, बाँस की दीवारें . भौंडे पत्थरों के आंगन तथा दीवारें उस युग के स्थापत्य पर पूरा प्रकाश डालते हैं। मकानों में खिड़कियाँ, द्वार, बरामदे, खुले चौक आवास की पूरी इकाई बनाते थे जो यहाँ की समृद्ध अवस्था पर प्रकाश डालते हैं। ताँबे के कतिपय खानों के निकट होने से खनन कार्य में लगे हुए मानव का बोध होता है। आज भी इसका पुराना नाम ताम्रवती नगरी से जाना जाता है।
इसी प्रकार पौराणिक सभ्यता के युग में राजस्थान के कई सांस्कृतिक केन्द्रों को बोध होता है जिनमें पुष्कर, मसध्वन जाँगल, मत्स्य, साल्व, मरुकांतार आदि प्रमुख हैं। इनसे सम्बन्धित उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्बुद, पुष्करारण्य, बागड़ आदि भागों में जहाँ - जहाँ नगरों के विकास हुआ, वहाँ नगर के चारों तरफ खाईयाँ तथा प्राकारों के निर्माण हुए तथा नगरे में प्रासाद, भवन, वापिकाओं तथा उद्यानों की व्यवस्था रखी गई। पहाड़ी तथा जंगल में बसने वाली बस्ती में घास -फूस, बाँस, खपरैल के मकान बने जिन्हें काँटेदार झाड़ियों से सुरक्षित रखा जाता था। इस प्रकार के स्थापत्य से अनुमान है कि उस समय तक नागरिक एवं ग्रामीण स्थापत्य का स्वभाव विकसित हो चुका था और उसके सामंजस्य से एक उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म हुआ।
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