गुरुवार, 19 जुलाई 2012

अमर बलिदानी भाई मतिराम जी !!

औरंगजेब के शासन काल में हिंदुओं पर अनेक रूप से अत्याचार हुए थे जिहाद के नाम पर हिंदुओं का बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन करने के लिए इंसान के रूप में साक्षात् शैतान तलवार लेकर भयानक अत्याचार करने के लिए चारों तरफ निकल पड़े रास्ते में जो भी हिन्दू मिलता उसे या तो इस्लाम में दीक्षित करते अथवा उसका सर कलम कर देते!

कहते हैं की प्रतिदिन सवा मन हिंदुओं के जनेऊ की होली फूंक कर ही औरंगजेब भोजन करता था हिन्दुओं का स्वाभिमान नष्ट होता जा रहा था उनकी अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध प्रतिकार करने की शक्ति लुप्त होती जा रही थी!!

आगरे से हिन्दुओं पर अत्याचार की खबर फैलते फैलते लाहौर तक पहुँच गयी जब यह खबर भाई मतिराम जी को मिली तो हिन्दू स्वाभिमान के प्रतीक भाई मतिराम जी की आत्मा यह अत्याचार सुनकर तड़प उठी उनके हदय ने चीख चीख कर इस अन्याय के विरुद्ध अपनी आहुति देने का प्रण किया उन्हें विश्वास था की उनके प्रतिकार करने से और उनके बलिदान देने से निर्बल और असंगठित हिंदुओं में नवचेतना का संचार होगा और वे तत्काल लाहौर से आगरे पहुँच गए और इस्लामी मतान्ध तलवार के सामने सर झुकाएँ हुए मृत्यु के भय से अपने पूर्वजों के धर्मको छोड़ने को तैयार हिंदुओं को उन्होंने ललकार कर कहा- कायर कहीं के, मौत के डर से अपने प्यारे धर्म को छोड़ने में क्या तुमको लज्जा नहीं आती !!

भाई मतिरामजी की बात सुनकर मतान्ध मुसलमान हँस पड़े और उससे कहा कि कौन हैं तू जो मौत से नहीं डरता तब भाई मतिरामजी ने कहा की अगर वाकई तुममे दम हैं तो मुझे मुसलमान बना कर दिखाओ!!

भाई मतिरामजी को बंदी बना लिया गया उन्हें अभियोग के लिए आगरे से दिल्ली भेज दिया गया लोहे की रस्सियों में जकड़े हुए भाई मतिराम जी को दिल्ली के हाकिम अलफ खान के दरबार में उपस्थित किया गया काजियों ने शरह के कुछ पन्ने पलट कर पहले से ही निश्चित हुक्म सुना दिया कि मतिराम तुम्हे इस्लाम कबूल करना होगा तब भाई मतिरामजी ने कहा कि और अगर न करूँ तो तब हाकिम ने बोला तब तुम्हे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा तब मतिरामजी ने कहा की मुझे धर्म छोड़ने की अपेक्षा अपना शरीर छोड़ना स्वीकार हैं!!
हाकिम ने फिर कहा की मतिराम फिर से सोच लो मतिराम ने फिर कहा की मेरे पास सोचने का वक्त नहीं हैं हाकिम तुम केवल और केवल मेरे शरीर को मार सकते हो मेरी आत्मा को नहीं क्यूंकि आत्मा अजर अमर और अविनाशी हैं न कोई उसे जला सकता हैं न कोई मार सकता हैं और मतिरामजी को इस्लाम की अवमानना के आरोप में आरे से चीर कर मार डालने का हाकिम ने दंड दे दिया!!
चांदनी चौक के समीप खुले मैदान में लोहे के सीखचों के घेरे में मतिराम को लाया गया दो जल्लाद उनके दोनों हाथों में रस्से बाँधकर उन्हें दोनों और से खीँचकर खड़े हो गए दो ने उनकी ठोढ़ी और पीठ थमी और दो ने उनके सर पर आरा रखा. इस प्रकार मतान्धता के खुनी खेल का अंत हुआ और वीर भाई मतिराम अपने प्राणों की आहुति देकर अमर हो गए!!

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