जब तीन अगस्त को अन्ना हजारे ने जंतर मंतर से राजनैतिक विकल्प देने कि बात की तो कई लोगों ने इसका स्वागत किया तो कई लोगों ने इसका विरोध भी किया ! सब के अपने अपने तर्क है लेकिन इस आंदोलन के राजनैतिक स्वरुप लेने से कई सवाल जरुर खड़े हो गए है जिनका जवाब शायद ही कभी मिल सके या मिलने में भी कई दशक लग जाए !!
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या यह आंदोलन असफलता कि भेंट चढ गया है क्योंकि अन्ना द्वारा राजनैतिक पार्टी के गठन की ही सबसे ज्यादा संभावना व्यक्त की जा रही है ! तो क्या पहली बार में अन्ना कि पार्टी को इतना समर्थन मिल जाएगा जिसके कारण वो सरकार बना सके और लोकपाल बिल को पास करवा सके ! जिसकी सम्भावना मुझे तो दूर दूर तक नजर नहीं आती क्योंकि एक तो उनके सामने चुनावों में मंझी हुयी राजनैतिक पार्टीयां होगी दूसरी और भारत की जनता इतनी जागरूक नहीं है ! जनता चुनावों में जातियों और धर्म के आधार पर वोट करती है यही कारण है जिसके कारण ऐसी राजनैतिक व्यवस्था हावी हो गयी !!
अन्ना अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर है और अभी तो दूर दूर तक अन्ना की पार्टी का ही पता नहीं तो आप यह तो भूल ही जाइए कि २०१४ के चुनावों में अन्ना की पार्टी सरकार बना लेगी ! अन्ना की पार्टी को सता में आने के लिए कई चुनावों का सामना करना पड़ेगा तब इस बात की क्या गारंटी है कि अन्ना की पार्टी अपने उद्येश्यों और सिद्धांतों पर अडिग रह पाएगी !
जेपी आंदोलन के बाद मिले राजनैतिक विकल्पों ने जनता की आशाओं पर पानी फेर दिया था इसीलिए जनता ने आंदोलनों से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझनी शुरू कर दी थी लेकिन उस समय जो युवा थे वो आज के बुजुर्ग हो गए और आज की नयी युवा पीढ़ी ने जेपी आंदोलन को देखा नहीं था यही कारण रहा कि जब अन्ना जैसे गैर राजनैतिक व्यक्ति ने भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो लोगों को एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग जुड़ते चले गए लेकिन इस आंदोलन का रुख राजनीति की और चले जाने से क्या लोगों का विश्वास आंदोलनों के प्रति रह पायेगा तथा जो लोग अन्ना के साथ जुड़े थे वो भी क्या अन्ना के साथ रह पायेंगे !!
एक और बात अन्ना अपने आप को गांधीवादी कहते रहे है और अनशन और अहिंसा को अपना सबसे बड़ा हथियार मानते आये है तो क्या अनशन और अहिंसा दोनों क्या ताकतवर हथियार नहीं रह गए है ! बचपन से ही यही सुनते आये है कि "साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल दे दी आजादी बिना खड्ग बिना ढाल" तो क्या इसी कमजोर हथियार के बदौलत ही हमको आजादी मिली थी ! तो इस आंदोलन की विफलता केवल अन्ना पर ही नहीं गांधीजी के हथियार अनशन और अहिंसा पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दे रही है क्योंकि आज जब लोकतान्त्रिक सरकार से जब गाँधीजी के बताए रास्ते से अन्ना जब अपने मकशद में कामयाब नहीं हो पाए तो आजादी से पहले तो अंग्रेजों की सरकार थी तो उसको तो क्या फर्क पड़ सकता था !!
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या यह आंदोलन असफलता कि भेंट चढ गया है क्योंकि अन्ना द्वारा राजनैतिक पार्टी के गठन की ही सबसे ज्यादा संभावना व्यक्त की जा रही है ! तो क्या पहली बार में अन्ना कि पार्टी को इतना समर्थन मिल जाएगा जिसके कारण वो सरकार बना सके और लोकपाल बिल को पास करवा सके ! जिसकी सम्भावना मुझे तो दूर दूर तक नजर नहीं आती क्योंकि एक तो उनके सामने चुनावों में मंझी हुयी राजनैतिक पार्टीयां होगी दूसरी और भारत की जनता इतनी जागरूक नहीं है ! जनता चुनावों में जातियों और धर्म के आधार पर वोट करती है यही कारण है जिसके कारण ऐसी राजनैतिक व्यवस्था हावी हो गयी !!
अन्ना अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर है और अभी तो दूर दूर तक अन्ना की पार्टी का ही पता नहीं तो आप यह तो भूल ही जाइए कि २०१४ के चुनावों में अन्ना की पार्टी सरकार बना लेगी ! अन्ना की पार्टी को सता में आने के लिए कई चुनावों का सामना करना पड़ेगा तब इस बात की क्या गारंटी है कि अन्ना की पार्टी अपने उद्येश्यों और सिद्धांतों पर अडिग रह पाएगी !
जेपी आंदोलन के बाद मिले राजनैतिक विकल्पों ने जनता की आशाओं पर पानी फेर दिया था इसीलिए जनता ने आंदोलनों से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझनी शुरू कर दी थी लेकिन उस समय जो युवा थे वो आज के बुजुर्ग हो गए और आज की नयी युवा पीढ़ी ने जेपी आंदोलन को देखा नहीं था यही कारण रहा कि जब अन्ना जैसे गैर राजनैतिक व्यक्ति ने भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो लोगों को एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग जुड़ते चले गए लेकिन इस आंदोलन का रुख राजनीति की और चले जाने से क्या लोगों का विश्वास आंदोलनों के प्रति रह पायेगा तथा जो लोग अन्ना के साथ जुड़े थे वो भी क्या अन्ना के साथ रह पायेंगे !!
एक और बात अन्ना अपने आप को गांधीवादी कहते रहे है और अनशन और अहिंसा को अपना सबसे बड़ा हथियार मानते आये है तो क्या अनशन और अहिंसा दोनों क्या ताकतवर हथियार नहीं रह गए है ! बचपन से ही यही सुनते आये है कि "साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल दे दी आजादी बिना खड्ग बिना ढाल" तो क्या इसी कमजोर हथियार के बदौलत ही हमको आजादी मिली थी ! तो इस आंदोलन की विफलता केवल अन्ना पर ही नहीं गांधीजी के हथियार अनशन और अहिंसा पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दे रही है क्योंकि आज जब लोकतान्त्रिक सरकार से जब गाँधीजी के बताए रास्ते से अन्ना जब अपने मकशद में कामयाब नहीं हो पाए तो आजादी से पहले तो अंग्रेजों की सरकार थी तो उसको तो क्या फर्क पड़ सकता था !!
2 टिप्पणियां :
भाजापा ने अपने शुरूआती दिनों में अयोध्या में मंदिर
बनाने की बात की थी,सरकार भी बनी तो क्या मंदिर
आज तक बना पाए,,इसी तरह अन्ना की पहली बात
सरकार नही बननी दो चार सांसद जीत भी गए तो क्या अपने उद्देश्य में सफल हो पायेगें,,,,नामुमकिन ,,,,
RECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,
आपकी बात बिलकुल सत्य है !!
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