राजनीति की दिशा आखिर जा किधर रही है कुछ समझ में नहीं आ रहा है आम आदमी ,किसान ,मजदुर की बात करने वाली पार्टी आजकल उनको भूल कर पूंजीवाद की हिमायती बनकर सामने आ रही है तो लोहिया के समाजवाद को आधार बनाने वाली पार्टियां आजकल सतालोलुप्ता के मकड़जाल में फंस कर समाजवाद का ही गला घोंट रही है तो दूसरी तरफ हिंदुत्व का झंडा उठाने वाली पार्टियां भी हिंदुत्व की को दरकिनार करती दिखाई दे रही है कुछ ऐसा ही हाल जेपी के आदर्शों की बातें करने वाली पार्टियों की भी है वो भी सतालोलुप्त्ता में लिप्त दिखाई दे रही है और क्षेत्रीयता से अलग कुछ सोच नहीं पा रही है और साम्यवादी विचारधारा वाली पार्टियां भी दिग्भ्रमित नजर आ रही है !
ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या इन पार्टियों के लिए विचारधारा का इतना महत्व नहीं रह गया है या फिर इन पार्टियों के लिए ये विचारधाराएं केवल चुनावी घोषणापत्रों तक सिमित हो गयी है क्योंकि आजकल हर पार्टी विचारधाराओं से भटकी हुयी नजर आती है ऐसे में आम जनता आखिर इन्ही विचारधाराओं को आधार मान कर इन पार्टियों से क्यों जुड़े जबकि इन पार्टियों के लिए इन विचारधाराओं का कोई महत्व रह नहीं गया है !!
अब सवाल ये भी खड़ा होता है कि जब सारी पार्टियां ही विचारधारा को तिलांजली देती हुयी नजर आती है तो जनता जाए तो जाए कहाँ क्योंकि जनता के सामने तो एक तरह से एक पूरा राजनैतिक माफिया खड़ा हो गया है जो जनता को मजबूर कर रहा है कि हम आपके विकल्पों का रास्ता खोलेंगे नहीं और आपकी मज़बूरी है कि हममें से ही किसी को चुनना पड़ेगा और हम जो भी करेंगे वो आपको स्वीकार करना ही होगा इसी सोच के कारण तो जब चुनाव सुधारों की कोई बात भी करता है तो सभी पार्टियां अपने अपने हथियार लेकर मैदान में खड़ी हो जाती है और इस दिशा में किसी तरह कि पहल करती है ना ही होने देना चाहती है !!
लेकिन इन पार्टियों को भी यह याद रखना चाहिए जब जनता अपने पर आती है तो राजनैतिक पार्टियों का अस्तित्व ही नहीं बल्कि सिंहासनों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है इसलिए इनको समझना होगा कि अति हर समय खराब ही होती है और जितनी जल्दी ये पार्टियां इस हकीकत को समझ ले वो इस देश के लिए भी अच्छा है और इस राजनितिक जमात के लिए भी अब ये उन पर निर्भर करता है कि वो कब इस सत्य को स्वीकार करते है !!
1 टिप्पणी :
अभी देश की जनता उतनी जागरूक नहीं है जो सही गलत का विश्लेषण कर सके.
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