मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं पर बढ़ता जनता का अविश्वास !!

किसी भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की सफलता के लिए वहाँ कि जनता का अपने संविधान में आस्था होना और लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं में विश्वास होना जरुरी है ! और इन संस्थाओं में विश्वास होने का मतलब यह कतई नहीं है कि इन संस्थाओं के भवनों में विश्वास हो बल्कि जनता का उन लोगों पर विश्वास होना चाहिए जो इन भवनों में बैठते हैं ! लेकिन पिछले पैंसठ सालों में जिस तरह से संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ की गयी और संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं का अपने शुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए दुरूपयोग किया गया उसका परिणाम यह हो रहा है कि आज जनता लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं पर विश्वास नहीं कर पा रही है !

हमारे संविधान कि मूल भावना धर्मनिरपेक्षता है जिसमें जाति ,धर्म आधारित फैसलों के लिए कोई जगह नहीं थी लेकिन १९५६ में हिंदू कोड बिल लागू करके इस देश में धार्मिक आधार पर भेदभाव का पहला पौधा निरुपित किया गया और उसके बाद १९८६ में शाहबानों प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए संविधान संसोधन लाकर मुस्लिम पर्सनल ला को सरकारी तौर पर मान्यता देकर संविधान के मूल भाव को ही नेपथ्य में धकेल दिया गया और उसके बाद तो धार्मिक भेदभाव पर आधारित इतने फैसले हुए कि अब तो इस देश में धर्मनिरपेक्षता केवल कहने भर को रह गयी है बाकी तो सारे फैसले धार्मिक आधार और वोटबैंक को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं ! जाति आधारित आरक्षण का विश्लेषण किये ही आगे बढ़ाया जा रहा है जिसको हमारे संविधान में केवल पन्द्रह सालों की समयसीमा में बांधकर लागू किया गया था लेकिन जातिगत वोटबैंक को ध्यान में रखकर उसको लगातार बढ़ाकर संविधान के मूल भाव को ही दबाया जा रहा है !

राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों का अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए दुरूपयोग हम देख चुके हैं कि कैसे विरोधी दलों कि जनता द्वारा चुनी हुयी सरकारों को रोमेन भंडारी और बूटा सिंह जैसे राज्यपालों का सहारा लेकर सत्ता से दूर कर दिया गया ! किस तरह एक ही झटके में चार चार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया जाता है ! अब यह भी छुपा हुआ नहीं रह गया है कि अन्य संवैधानिक पदों और संस्थाओं का किस तरह से दुरूपयोग किया जा रहा है और जिनका दुरूपयोग सरकारें नहीं कर पा रही है उन पर कैसे कीचड़ उछालकर उन संस्थाओं पर से जनता का विश्वास अपने शुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए किया जा रहा है ! और जब संवैधानिक संस्थाओं का हाल यह है तो बाकी संस्थाएं तो पूरी तरह से इनके चंगुल में ही दिखाई देती है !

लोकतांत्रिक संस्थाओं में बैठे लोगों पर तो जनता किसी तरह भरोसा ही नहीं कर पा रही है जिसका कारण यह है कि यही लोग हैं जिन्होंने अपने हितों के लिए संवैधानिक पदों और संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग किया है अथवा अपने हित में इस्तेमाल किया है ! ऐसे में क्या जनता अपना विश्वास लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति रख पाएगी !!

9 टिप्‍पणियां :

केवल राम ने कहा…

सटीक अभिव्यक्ति ....!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-05-2013) बुधवासरीय चर्चा --- 1231 ...... हवा में बहे एक अनकहा पैगाम ....कुछ सार्थक पहलू में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown ने कहा…

सच लिखा आपने पूरण जी,अब तो सीबीआई भी मान चुकी है कि वह भी सरकार के अधीन है।

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार !!

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार !!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सच सच लिखा है. अब तो यह महामारी का ही पर्याय बन गया है.

रामराम.

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया गहन चिंतन से भरा आलेख ..

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

सादर आभार ताऊ !!

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार कविता जी !!