
भले ही किसी जमाने में कार्यपालिका में बैठे लोगों के मन में लोकसेवक होने का भाव होता होगा लेकिन आज की हकीकत देखें तो उनके अंदर लोकसेवक होनें का भाव तो बिलकुल भी नहीं रहता है बल्कि उनके अंदर शासकीय भाव जागृत हो चूका है !जहां संविधान में इनको लोकसेवक माना गया है और विधायिका के साथ सामंजस्य बिठाते हुए जनता की भलाई की अपेक्षा इनसे रखी गयी थी लेकिन कार्यपालिका में बैठे लोगों नें विधायिका में बैठे लोगों से सामंजस्य तो बनाया लेकिन लोकसेवा के लिए नहीं बल्कि निज हितों और निज सेवा को ध्यान में रखते हुए बनाया !
आज हालात यह है कि कार्यपालिका में बैठे कुछ चंद लोगों की बात छोड़ दें तो आप किसी भी कार्यालय में किसी काम को लेकर चले जाइए ! आप वहाँ अपने काम के बारे में बात करेंगे तो वहाँ के अधिकारियों का लहजा आपके प्रति ऐसा रहेगा जैसे आपनें उस कार्यालय में आकर कोई गलती कर दी हो ! आपका काम हो भी यह जरुरी नहीं है लेकिन आपको उस अधिकारी की रुआब भरी बातें तो जरुर ही सुननी पड़ेगी ! आखिर क्या इस तरह का लहजा किसी लोकसेवक का होनें कि आप कल्पना भी कर सकते हैं ! लेकिन आज जिनको हम लोकसेवक कहते हैं उनका तो यही लहजा प्राय: हर कार्यालय में देखने को मिल जाता है !