हमारे देश में फिल्मों में आपतिजनक दृश्यों और संवादों कि निगरानी के लिए जो संस्था बनी हुयी है वो केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (भारतीय सेसर बोर्ड) है लेकिन अगर आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि ऐसे आपतिजनक और अश्लीलता से भरे हुए संवाद हो या फिर द्विअर्थी गाने हो वो धड़ल्ले से पास हो जाते हैं ! और कई बार तो आपतिजनक दृश्यों को लेकर विवाद इतना बढ़ जाता है कि बाद में सेंसर बोर्ड को भी वो दृश्य हटवाना पड़ता है जैसा कि अभी हाल ही में विश्वरूपम के मामले में देखने को मिला था ! अश्लील संवादों और दृश्यों के प्रति तो ऐसा लगता है कि सेंसर बोर्ड वाले ध्यान देना ही भूल जाते हैं ! आखिर सेंसर बोर्ड इतना लाचार और लुंज पुंज क्यों है !
हमारे यहाँ गानों को रिलीज करने को लेकर लगता है कोई नियम ही नहीं है द्विअर्थी और अश्लील बोलों वाले गाने पहले ही बाजार में आ जाते हैं और वे गाने अंतर्जाल कि दुनिया से लेकर बाजार तक हर जगह उपलब्ध होते हैं ! और जब फिल्म रिलीज होने के समय जब प्रमाणपत्र के लिए सेन्सर बोर्ड के पास जाती है तब उन गानों पर सेंसर बोर्ड द्वारा रोक लगाई जाती है लेकिन फिर सवाल वही खड़ा हो जाता है कि उस रोक का फायदा क्या होता है क्योंकि वो गाने फिल्म से भले ही हटा दिए जाएँ लेकिन बाजार में हर जगह उपलब्ध होते हैं और कई बार तो ऐसा देखा जाता है कि कहने को गाने पर सेंसर बोर्ड द्वारा रोक होती है लेकिन बाजार में मिलने वाली फिल्मों की सीडी और डीवीडी में उन्ही गानों के साथ फिल्म होती है जिन पर सेंसर बोर्ड द्वारा रोक लगाई हुयी होती है !
भारतीय सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का पद सतासीन पार्टी की इच्छा का मोहताज होता है और उसी व्यक्ति को इसका अध्यक्ष बनाया जाता है जो उस राजनैतिक पार्टी कि सोच से इतिफाक रखता है ! जिसका प्रभाव उसके निर्णयों में भी कई बार देखा जाता है और फिल्मों को प्रमाणपत्र देने के समय किस दृश्य को हटाना है और किसको रखना है इस निर्णय पर भी कई बार देखा गया है कि राजनैतिक सोच हावी रहती है ! जिसके कारण सबके साथ एक समान फैसले पर हमेशा शक कि गुंजाइश बनी रहती है !
वहीँ फ़िल्मी जगत के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर सकारात्मक पहलु भी है तो इसका नकारात्मक पहलु भी है ! इसका सकारात्मक पहलु तो यह है कि फिल्म जगत से जुडी हुयी बातों को वही लोग गहराई से जानते हैं जो उसी क्षेत्र से आते हैं लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलु भी है जिसकी और ध्यान देने कि आवश्यकता है वो यह कि फिल्म जगत से जुड़े लोगों कि सोच उन्ही के कार्यक्षेत्र के लोगों प्रति ज्यादा हमदर्दी भरी होती है और इसका उदाहरण तो सभी नें हाल ही में देखा है जब फिल्म जगत से जुड़े एक दो लोगों को छोडकर सभी नामी गिरामी लोगों नें संजय दत्त के पक्ष में लामबंदी दिखाई थी ! और सबने देखा था कि किस तरह से मुंबई बम धमाकों में पीड़ित लोगों का दर्द संजय दत्त की साढे तीन साल कि सजा से होने वाले मुश्किल के सामने फ़िल्मी जगत से जुड़े लोगों के लिए छोटी बात हो गयी थी ! तो क्या ऐसे लोग सेन्सर बोर्ड में रहते हुए अपनी इन्ही भावनाओं से इतर फैसला लेते होंगे !
11 टिप्पणियां :
Sahi kaha aapne.
प्लीrज़ वोट करें, सपोर्ट करें!
हमारा सपोर्ट तस्लीम को आपके कहने से पहले से ही है !!
आभार !!
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
साझा करने के लिए धन्यवाद!
सभी तो अपने हैं समझ में नहीं आता कि किसे वोट करें!
चलिए गुप्त मतदान कर देंगे!
बहुत ही विचारणीय आलेख।
सेंसर बोर्ड की अच्छी खल खींची है आपने
बहुत सही
बधाई
हमारे यहाँ सेंसर बोर्ड भी ज्यदा प्रभावी नहीं है,सार्थक और चिंतनीय आलेख.
बहुत बढ़िया,सटीक प्रस्तुति !!!
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आपका कहना सही है !!
आभार आदरणीय !!
आभार !!
आभार !!
सादर आभार !!
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