कल सर्वोच्च न्यायालय नें एक अहम फैसला देते हुये मतदाता को नकारात्मक वोटिंग का अधिकार देनें के लिए ईवीएम में एक नापसंदगी का बटन जोडनें के निर्देश निर्वाचन आयोग को दिए हैं ! फैसला अपनें आप में अहम तो है लेकिन जिस तरह से मीडिया द्वारा इसे राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार ) कहकर प्रचारित किया जा रहा है वो सही नहीं है ! यह दरअसल पहले से चला आ रहा नापसंदगी के आधिकार ( नो वोट )को सुलभता प्रदान करनें वाला निर्देश ही है जिसको राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार ) नहीं माना जा सकता है !
यह नापसंदगी वाला अधिकार पहले से ही था लेकिन उसके लिए जो प्रक्रिया थी उससे मतदान की गोपनीयता नहीं रह पाती थी और प्रक्रिया भी परेशान करने वाली थी ! पहले इसके लिए प्रारूप १७ भरना पड़ता था जिसको मांगते ही यह पता चल जाता था कि आप नापंसदगी का मत ( नो वोट ) डालेंगे ! दूसरी बात यह फ़ार्म मतदान खत्म होनें के अंतिम आधे घंटे में ही मांग सकते थे और भरकर जमा करवा सकते थे ! उस अंतिम आधे घंटे को छोड़कर आप प्रारूप १७ की मांग नहीं कर सकते थे ! सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद अब नापसंदगी के मत की गोपनीयता भी बनी रहेगी और यह मतदान के पूर्ण समय के लिए ईवीएम मशीन पर बटन के रूप में उपलब्ध होगा ! यह उन मतदाताओं की इच्छा पूर्ण करेगा जो मतदान तो करना चाहते हैं लेकिन कोई भी उम्मीदवार पसंद ना होने पर वोट नहीं देनें जाते हैं !
लेकिन इसको नकारने का अधिकार (राईट टू रिजेक्ट ) कहना सही नहीं है क्योंकि सही मायनों में नकारने का अधिकार राईट टू रिजेक्ट ) उसे कहा जाता है जिसमें नापसंदगी के लिए पड़ने वाले मत सबसे ज्यादा मत पाने वाले प्रत्याशी से ज्यादा हो तो उन सभी प्रत्याशियों को आगामी किसी भी चुनाव के लिए अयोग्य ठहरा कर चुनाव रद्द घोषित करके दुबारा से चुनाव करवाया जाए ! जबकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है नापसंदगी के लिए पड़नें वाले मतों की गिनती अलग होगी लेकिन उनको खारिज मतों में ही गिना जाएगा ! नापसंदगी के मतों से चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ेगा ! इसको भी लागू करने की कोई समयसीमा तय नहीं की गयी है इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह कब तक लागू होगा !
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सराहनीय है क्योंकि इससे मतदाता को नापसंदगी का अधिकार तो मिला है ! या यूँ कहे जिस अधिकार को पहले मतदाता उपयोग में नहीं ला पाता था अब उसका उपयोग करके मतदाता नापसंदगी जाहिर करके आईना तो दिखा सकता है लेकिन अभी भी वो आईना दिखाने से ज्यादा कुछ कर पानें में नाकाम है ! क्योंकि इसमें अगर किसी प्रत्याशी को १ मत मिलता है और नापसंदगी वाले मत ९९ है तो भी वो एक मत पाने वाला प्रत्याशी विजयी हो जाएगा ! इसलिए नकारने का अधिकार पाने के लिए भारतीय मतदाता को अभी और मेहनत करनी पड़ेगी ! लेकिन मुझे मीडिया की समझ पर ताजुब जरुर होता है कि मीडिया इसको नकारने का अधिकार ( राईट टू रिजेक्ट ) कहकर कैसे प्रचारित कर रहा है !
13 टिप्पणियां :
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला उचित है ,नापसंदगी का बटन जोड़ना
एक अच्छा परिणाम देगा। बेहतरीन आलेख।
आपका कहना सही है सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सराहनीय है और ये यह फैसला सभी पार्टियों से नाराज मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक लाने में कामयाब भी हो सकता है ! लेकिन इसको राईट टू रिजेक्ट नहीं कहा जा सकता है !
आभार !!
यह भी तो है झुनझुना, खड़ा कुनमुना व्यक्ति |
नेता तो चुनकर गया, व्यर्थ दिखाया शक्ति ||
आभार आदरणीय-
सादर आभार !!
सहर्ष सादर आभार !!
कोई विशष शब्दावली से परिणाम में फरक नहीं होगा .असली मुद्दा है मतदाता को नापसंद करने का अधिकार मिलना चाहिए और यह मिला है l
नई पोस्ट अनुभूति : नई रौशनी !
नई पोस्ट साधू या शैतान
नापसंद करने वाले वोट यदि सभी उम्मीदवारों के वोटो से ज्यादा है ,तो परिणाम शून्य घोषित किया जाएगा ! राईट टू रिजेक्ट क़ानून का यही अर्थ है ,,,,
नई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
नापसंदगी का अधिकार ही मिला है लेकिन उमीदवारों को नकारने का अधिकार नहीं मिला है ! केवल शब्दावली का फर्क नहीं है बल्कि अधिकार का फर्क है !
सादर आभार !!
सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान फैसला राईट टू रिजेक्ट की पुष्टि नहीं करता है बल्कि राईट टू नों वोट की पुष्टि करता है !!
सादर आभार !!
आपकी बात सही है पर कुछ तो हुआ.
रामराम.
आभार ताऊ !!
राम राम !!
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