शनिवार, 28 सितंबर 2013

नापसंदगी के अधिकार ( No Vote ) को नकारने का अधिकार ( Right to Reject ) बताया जा रहा है !!

कल सर्वोच्च न्यायालय नें एक अहम फैसला देते हुये मतदाता को नकारात्मक वोटिंग का अधिकार देनें के लिए ईवीएम में एक नापसंदगी का बटन जोडनें के निर्देश निर्वाचन आयोग को दिए हैं ! फैसला अपनें आप में अहम तो है लेकिन जिस तरह से मीडिया द्वारा इसे राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार ) कहकर प्रचारित किया जा रहा है वो सही नहीं है ! यह दरअसल पहले से चला आ रहा नापसंदगी के आधिकार ( नो वोट )को सुलभता प्रदान करनें वाला निर्देश ही है जिसको राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार )  नहीं माना जा सकता है ! 

यह नापसंदगी वाला अधिकार पहले से ही था लेकिन उसके लिए जो प्रक्रिया थी उससे मतदान की गोपनीयता नहीं रह पाती थी और प्रक्रिया भी परेशान करने वाली थी ! पहले इसके लिए प्रारूप १७ भरना पड़ता था जिसको मांगते ही यह पता चल जाता था कि आप नापंसदगी का मत ( नो वोट ) डालेंगे ! दूसरी बात यह फ़ार्म मतदान खत्म होनें के अंतिम आधे घंटे में ही मांग सकते थे और भरकर जमा करवा सकते थे ! उस अंतिम आधे घंटे को छोड़कर आप प्रारूप १७ की मांग नहीं कर सकते थे ! सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद अब नापसंदगी के मत की गोपनीयता भी बनी रहेगी और यह मतदान के पूर्ण समय के लिए ईवीएम मशीन पर बटन के रूप में उपलब्ध होगा ! यह उन मतदाताओं की इच्छा पूर्ण करेगा जो मतदान तो करना चाहते हैं लेकिन कोई भी उम्मीदवार पसंद ना होने पर वोट नहीं देनें जाते हैं ! 

लेकिन इसको नकारने का अधिकार (राईट टू रिजेक्ट ) कहना सही नहीं है क्योंकि सही मायनों में नकारने का अधिकार राईट टू रिजेक्ट ) उसे कहा जाता है जिसमें नापसंदगी के लिए पड़ने वाले मत सबसे ज्यादा मत पाने वाले प्रत्याशी से ज्यादा हो तो उन सभी प्रत्याशियों को आगामी किसी भी चुनाव के लिए अयोग्य ठहरा कर चुनाव रद्द घोषित करके दुबारा से चुनाव करवाया जाए ! जबकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है नापसंदगी के लिए पड़नें वाले मतों की गिनती अलग होगी लेकिन उनको खारिज मतों में ही गिना जाएगा ! नापसंदगी के मतों से चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ेगा ! इसको भी लागू करने की कोई समयसीमा तय नहीं की गयी है इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह कब तक लागू होगा !

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

राजनैतिक पार्टियों द्वारा की जाने वाली चुनाव सुधार की बातें खोखली हैं !!

हमारे देश में गाहे बगाहे हर पार्टी चुनाव सुधारों की बातें करती रहती है लेकिन उनकी ये बातें बातों तक ही सिमित रहती है ! असल में तो हर पार्टी वर्तमान लुंजपुंज व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है और अब ये भी साफ़ हो चूका है कि इसी व्यवस्था को बनाए रखनें के लिए ये पार्टियां किसी भी सीमा तक जा सकती है ! हालिया दिनों में आये दो फैसलों और उनको उलटने की प्रक्रिया नें दिखा दिया कि सभी राजनैतिक पार्टियों की कथनी और करनी में बहुत बड़ा फर्क है और इस ढुलमुल व्यवस्था को बनाए रखनें की हरसंभव कोशिश ये पार्टियां करेगी !

केन्द्रीय सुचना आयोग और सर्वोच्च न्यायालय की और से दौ अच्छे फैसले राजनैतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने और संसद में अपराधियों कि पहुँच को रोकने को लेकर आये थे जो अगर लागू हो जाते तो अच्छे परिणाम मिल सकते थे ! वैसे तो इन फैसलों के आने के बाद से ही राजनैतिक पार्टियों के मंसूबे साफ़ दिखाई पड़ रहे थे जिसका जिक्र मैनें अपनें अग्रलिखित आलेख "इस भ्रष्टाचार और अपराधपोषित व्यवस्था को बदलनें का रास्ता आखिर क्या है " में किया था ! जो पहले मंसूबे इनके दिखाई पड़ रहे थे अब उन्ही को अमलीजामा पहनाया जा रहा है ! 

हमारे संविधाननिर्माताओं नें विधायिका को ज्यादा अधिकार इसलिए दिए थे कि ये जनता के प्रति जबाबदार होंगे तो जनता के डर से इन अधिकारों का दुरूपयोग नहीं करेंगे ! उन्होंने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि विधायिका अपनें अधिकारों का इस तरह से दुरुपयोग करेगी जैसा आज किया जा रहा है ! एक फैसले को आर्टीआई कानून में संशोधन करके बदल दिया गया तो दूसरे को अध्यादेश के जरिये बदलने की कोशिशें अपनें अंतिम चरण में है ! ऐसे में सुधार की रौशनी आये तो आये किधर से क्योंकि किसी भी तरह के सुधार को तो पार्टियां आने ही नहीं देना चाहती है और इसमें उनको सफलता दिलाने के लिए उनको प्राप्त संविधानप्रदत अधिकार उनके लिए एक मजबूत ढाल का काम कर रहे हैं !