बुधवार, 13 अगस्त 2014

शहर सॆ भला अपना गांव, चलॊ चलतॆ हैं !!

राजबुन्देली की एक रचना:-

रिश्तॊं मॆं नहीं कॊई दुराव, चलॊ चलतॆ हैं !
शहर सॆ भला अपना गांव, चलॊ चलतॆ हैं !!
पनघट की पगडंडियां, बिरवा बगीचॆ कॆ !
बुला रही बरगद की छांव, चलॊ चलतॆ हैं !!
अपनॆ पुरखॊं का चमन उजड़ता जा रहा !
मिल कॆ करॆंगॆ रख-रखाव, चलॊ चलतॆ हैं !!



गरमी की तपन वह, बारिष का भीगना !
सिसयातॆ जाड़ॆ कॆ अलाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
वॊ चटनी-रॊटी मुझॆ याद आती है बहुत !
सुहाता नहीं है यॆ पुलाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
हिन्दू-मुसलमां हॊ, अमीर या गरीब हॊ !
वहां नहीं कॊई भॆद-भाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

एक दूजॆ कॆ सुख-दुख कॆ साथी हैं सब !
आपस मॆं इतना लगाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
जरा तंग-हाली मॆं गुजरॆगी यॆ ज़िन्दगी !
हमॆशा न रहॆगा अभाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

आज़ादी सॆ रहॆंगॆ हम वहीं खॆती करॆंगॆ !
वहां नहीं है कॊई दबाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
माई बाबू की सॆवा सॆ, ज़न्नत मिलॆगी !
सब का यही है सुझाव, चलॊ चलतॆ हैं !!

शहर की चकाचौंध मॆं, खॊ जायॆंगॆ हम !
दिलॊ-दिमाग मॆं है घाव, चलॊ चलतॆ हैं !!
"राज बुन्दॆली" तॊ तखल्लुस है उनका !
नाम है डा.आर.एल.राव, चलॊ चलतॆ हैं !!


4 टिप्‍पणियां :

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

चलो ना चलते हैं :)
वाह बहुत सुंदर ।

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

सादर आभार !!

Pallavi saxena ने कहा…

चलो चलते हैं...

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

हम तो वैसे भी गाँव वाले ही हैं !!
आभार !!