आज शिक्षक दिवस है और इसको हर साल मनाते हैं ! बधाईयां , शुभकामनायें देकर हम अपनें कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं ! लेकिन जैसे जैसे नाम बदलते गए वैसे वैसे इनमें भावनात्मक लगाव भी कम होता गया इसका विचार करनें की जहमत कोई नहीं उठाता है ! अध्यापन करानें वाले और अध्ययन करनें वाले को पहले हमारे यहाँ गुरु और शिष्य कहा जाता था तब शिष्य का गुरु के प्रति आदर का भाव जिंदगी भर के लिए बना रहता था ! फिर इस रिश्ते का नया नाम शिक्षक और छात्र का हुआ और उस आदर के भाव में गिरावट आई और वो आदर का भाव केवल आमना सामना होनें तक सिमित हो गया ! आज तो इसका नया अंग्रेजी संस्करण टीचर और स्टूडेंट वाला आ गया है जिसमें यह रिश्ता केवल और केवल शिक्षण संस्थान के भीतर तक ही रह गया है और बाहर दोनों अनजान हो जाते हैं !
हम डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं ! लेकिन क्या यह अच्छा नहीं हो कि किसी भी दिवस को शुभकामनायें अथवा बधाइयों द्वारा मनाने के स्थान पर हम उस दिवस को मनाने के मूल उद्देश्य पर विचार करें , उस पर चिंतन करें ! उस पर चिंतन मनन करेंगे तभी तो वो दिवस मनाना सार्थक होगा और हमारे मनोभावों में कुछ बातें गहनता से अपना स्थान बना पाएगी ! वर्ना तो केवल और केवल औपचारिकता निभानें की चलती फिरती मशीन बन कर रह जायेंगे ! हमें आज शिक्षक दिवस के बहानें इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमारी प्राचीन परम्परा से चला आ रहा गुरु और शिष्य का रिश्ता आज टीचर और स्टूडेंट तक आते आते केवल औपचारिक बनकर क्यों रह गया है !