राजनितिक
पार्टियों को चंदे के रूप में मिलने वाला धन ही भ्रष्टाचार कि असल वजह है ! आज देश
में तेरह सौ बावन पार्टियां चुनाव आयोग द्वारा पंजीकृत हैं और खुद चुनाव आयोग भी
यह मानता है कि इनमें से कई पार्टियां तो केवल टेक्स छूट लेने-देने और कालेधन के
इस्तेमाल के लिए ही बनी हुयी है ! लेकिन चुनाव आयोग के सिमित अधिकार उन पार्टियों
के लिए रक्षा कवच बने हुए हैं ! किसी जमाने में देश की सबसे बड़ी पार्टी के
कोषाध्यक्ष के बारे में यह कहावत चलती थी “न खाता न
बही,जो केसरी कहें वही सही” अब यह
बीमारी केवल एक ही पार्टी में नहीं है ! आज ज्यादातर पार्टियां अपने राजनैतिक
खजाने का सच बताने से बचती नजर आती है और इस तरह की जानकारियों के लिए सुचना के
अधिकार कानून के तहत आयकर विभाग से सुचना मांगनी पड़ती है !!
भारत
में चुनाव खर्च की जो सीमा निर्धारित की गयी है वो है एक लोकसभा के चुनाव प्रत्याशी
के लिए चालीस लाख रूपये ,एक विधानसभा के चुनाव प्रत्याशी के लिए अठारह लाख
रूपये,एक पार्षद के लिए बीस हजार रूपये और एक सरपंच के चुनाव प्रत्याशी के लिए
पांच हजार रूपये लेकिन हकीकत में जो खर्च चुनावों में होता है वो इससे बहुत ज्यादा
है असल में एक लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तीस करोड़ तक,विधानसभा चुनाव का प्रत्याशी
बीस करोड़ तक, एक पार्षद चुनाव का प्रत्याशी दस लाख रूपये तक और सरपंच पद का
प्रत्याशी पचास से साठ लाख तक खर्च कर देतें है और ये सारा धन अवैध और बेनामी चंदे
के जरिये ही आता है !!
जनप्रतिनिधित्व
कानून १९५१ के तहत यह स्पष्ट किया गया था कि २०००० रूपये से ज्यादा के किसी भी
प्रकार से मिलने वाले चंदे के बारे में पार्टियों को चुनाव आयोग को बताना होगा !
१९७५ में सुप्रीम कौर्ट ने एक महत्वपूर्ण
बात कही थी कि पार्टी जो भी खर्च करती है वो उम्मीदवार के चुनावी खर्च में जोड़ा
जाये ! लेकिन राजनैतिक पार्टियां तो अपनी मनमर्जी चलाने के लिए ही जानी जाती है
ऐसे में सुप्रीम कौर्ट की बात के उल्टा जाकर संविधान संशोधन करके पार्टी खर्च को
उम्मीदवार के खर्च से अलग कर दिया जिसके कारण राजनितिक पार्टियों को मिलने वाले
चंदे में भ्रष्टाचार और बढ़ गया !!
उधोगजगत
से मिलने वाले चंदे को ही भ्रष्टाचार की असल वजह माना जाता है ! इसकी सीमा भी
निर्धारित की गयी है कि कोई भी ओद्योगिक समूह अपने लाभांश का पांच प्रतिशत से
ज्यादा नहीं दे सकता लेकिन आज देश में ऐसे भी ओद्योगिक समूह हैं जो अपने लाभांश के
पांच प्रतिशत रकम से सभी पार्टियों को खुश कर सकते हैं और आज यही हो रहा है पहले
चुनाव में बड़े ओद्योगिक घराने पार्टियों को चंदा देकर उनकी सहायता करते हैं और बाद
में यही राजनैतिक पार्टियां जब सत्ता में आती है तो इन बड़े ओद्योगिक समूहों के हित
साधती है ! और इस तरह से राजनैतिक चंदे से भ्रष्टाचार पनप रहा है ! ऐसा नहीं है कि
राजनितिक बिरादरी इससे अनजान है वो भी इस बात को जानती है ! और १९६९ में इस पर रोक
भी लगाईं गयी थी लेकिन बाद में १९८५ में इस पर लगी रोक को हटा लिया गया ! जिसके
दुष्प्रभाव आज नये नये और बड़े बड़े घोटालों के रूप में हमारे सामने है !!
5 टिप्पणियां :
एकदम सही कहा आपने बहुत सार्थक प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर .शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .
उत्कृष्ट लेखन !!
सारा ही है.... इमानदार आदमी आज इनको चन्दा दे भी कौन रहा ?
इस सच्चाई से मुँह मोड़ लेने से यह घोटाला शांत होने वाला नहीं. जरुरत है कि इसका उपाय ढूँढा जाय और चुनाव के खर्चे को सरकारी खजाने से पूरा किया जाय.
जब तक अवैध चन्दा और अवैध खर्चों पर समुचित रोक नहीं लग पाएगी तब तक स्टेट फंडिंग की बात बेमानी है !!
एक टिप्पणी भेजें