गुरुवार, 7 मार्च 2013

स्वदेशी के मायने ना कभी बदले हैं और ना कभी बदलेंगे !!

आजादी से पहले महात्मा गांधी नें स्वदेशी व्रत धारण करते हुए देश के लोगों से स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आव्हान किया था और देश के लोगों नें भी गांधीजी का भरपूर साथ दिया था ! लेकिन आजादी के बाद क्या स्वदेशी के कोई मायने नहीं रह गये हैं ! इस सवाल का जवाब अगर सही तरीके से खोजा जाए तो आपको पता लगेगा कि स्वदेशी के मायने ना कभी बदले हैं और ना कभी बदलेंगे ! स्वदेशी के भाव का जो महत्व पहले था वो आज भी ज्यों का त्यों है लेकिन हमनें उस तरफ से अपनी आँखे बंद कर ली है और हमनें अपनी सोच को बदल लिया है जिसके कारण आज कई लोगों को स्वदेशी कि बात करना भी दकियानुशी या पुरानी सोच लगती है !!

आजादी मिलने के बाद हमारे देश के लोगों के लिए स्वदेशी के कोई मायने नहीं रहे ! लोगों कि सोच बदलती गयी और उनके अंदर से स्वदेशी के भाव का लोप होता चला गया और उनको वही ब्रांडेड वस्तुएं अच्छी लगने लगी जिनका कभी गांधी जी नें विरोध किया था ! देशी विदेशी मल्टीनैशनल कंपनियोंनें लोगों की इसी सोच का फायदा उठाया और अपना कब्ज़ा समूचे बाजार पर बना लिया ! जिसका प्रभाव यह हुआ कि गावों में चलने वाले वो छोटे छोटे कुटीर उद्योग धीरे धीरे बंद होते गये जिनसे गावों के लोगों कि आजीविका चलती थी ! आज हालत यह है कि भारत के गावों में कुटीर उधोग समाप्तप्राय: है और कहीं पर बचे भी है तो केवल उन्ही इलाकों में जो दूरदराज इलाके हैं !

भारत गावों का देश है और गावं कृषि पर आश्रित थे ! सब जानते हैं कि कृषि देश के ज्यादातर इलाकों में साल के कुछ महीनों में हि होती है ! शेष बचे समय में गाँव के लोग तरह तरह के कुटीर उधोग चलाकर रोजगार प्राप्त करते थे लेकिन सरकारों और लोगों की सोच नें गावों के इन कुटीर उधोगों को मटियामेट कर दिया ! इस तरह से गावों में बदहाली आती गयी और उसका परिणाम यह हुआ कि रोजगार की तलाश में गावों से पलायन का सिलसिला शुरू हो गया जो बदस्तूर आज भी जारी है ! ग्रामस्तर पर चल रहे कुटीर उधोगों से फायदा यह होता था कि गावों की जरुरत का सामान वहीँ मिलने के कारण पूंजी गावों से बाहर नहीं जा पाती थी और कुटीर उधोगों में गावों की जरुरत से ज्यादा होने वाले उत्पादन को शहरों में बेचा जाता था जिससे पूंजी गावों की तरफ हि आती थी जिससे पूंजी का विकेन्द्रीकरण होता था लेकिन गावों में चल रहे कुटीर उधोगों के बंद होने से पूंजी का वो विकेन्द्रीकरण बंद हो गया और पूंजी का केन्द्रीयकरण शुरू हो गया !



पूंजी के केन्द्रीयकरण का परिणाम यह हुआ कि पूंजी कुछ बड़े लोगों तक हि सिमित होकर रह गयी ! यह तो आप देश में मिल रहे आंकड़ों से देख हि सकते हैं कि आज देश कि हालत यह है कि १२१ करोड़ लोगों में महज कुछ हजार लोगों के पास कुल पूंजी का सतर प्रतिशत हिस्सा है ! और यह सब स्वदेशी भाव के लोप होने के कारण हि हुआ है और विदेशी कंपनियां जो धन देश से बाहर ले जा रही है वो अलग है ! इसलिए यह कहना गलत है कि आज स्वदेशी के कोई मायने नहीं है बल्कि स्वदेशी के मायने आज भी वही है जो पहले थे ! में जो कह रहा हूँ इस पर अलग अलग लोग अलग अलग तरीके से चर्चा करते हैं ! कोई गावों से पलायन की चर्चा करते हैं तो कोई गावों की बदहाली की चर्चा करते हैं लेकिन इन सब की जड़ में छुपा हुआ कारण यही है कि गावों के कुटीर उधोगों के समाप्तप्राय: होने के बाद गावों के लोगों के पास गावों में कोई रोजगार नहीं रह गया है जिसके कारण हि मजबूर होकर वो शहरों कि और रुख कर रहें है !

कृषि के प्रति घटता रुझान भी इसी से जुड़ा हुआ है क्योंकि आज कृषि फायदे का सौदा नहीं रहा है ! कृषि का कार्य साल के चार महीने हि होता है और बाकी समय किसान खाली रहता है ! जिसके कारण उसकी आजीविका का सारा भार कृषि पर हि आ जाता है और कृषि से इतनी आमदनी नहीं होती कि वो पुरे साल अपने परिवार कि आजीविका चला सकें ! इसलिए फिर उसके पास कृषि को छोडकर आजीविका के दूसरे साधन खोजने के सिवा कोई विकल्प नहीं रह जाता है !

7 टिप्‍पणियां :

Unknown ने कहा…

बहुत सही लिखा आपने पूरण जी,मैं आपके विचारों का स्वागत करता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

पूरण जी आपने सही कहा,आज खेती घाटे का सौदा है,जिसके कारण लोगो का रुझान कृषि में कम होता जा रहा है,,,

Recent post: रंग गुलाल है यारो,

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपके विचारों से सहमत हूँ क्योंकि स्वदेशी तो स्वदेशी ही होती है !!

नये लेख :- समाचार : दो सौ साल पुरानी किताब और मनहूस आईना।
एक नया ब्लॉग एग्रीगेटर (संकलक) : ब्लॉगवार्ता।

Jyoti khare ने कहा…

आपके आलेख से सहमत हूँ-----सार्थक आलेख

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार !!

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार मान्यवर !!

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

आभार !!