केन्द्रीय सुचना आयोग नें राजनैतिक पार्टियों को सुचना के कानून के अंतर्गत आने का निर्णय सुनाया है ! केन्द्रीय सुचना आयोग का यह एक अच्छा फैसला था जिसका स्वागत सभी को करना चाहिए था लेकिन जिस तरह से सभी पार्टियों नें एक सुर में इसका विरोध करना शुरू किया है ! जिससे यह जाहिर हो गया है कि ये पार्टियां अपने भीतर पारदर्शिता नहीं चाहती है और वो पार्टियों द्वारा किये जाने वाले खर्चे और आमदनी का हिसाब जनता को नहीं देना चाहती है !
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यही पार्टियां देश कि नीतियां बनाती है और इनकी नीतियों का देश पर प्रभाव पड़ता है इसलिए जनता को इन पार्टियों के खर्चे और आमदनी जानने का पूरा हक होना चाहिए ! इस फैसले के विरोध में इन पार्टियों का यह कहना बिलकुल गलत है कि "वो कोई सरकारी संस्थान नहीं है जो आरटीआई के दायरे में लाये जाए " वाकई हास्यास्पद है क्योंकि भले ही जाहिर तौर पर राजनैतिक पार्टियां सरकारी संस्थान नहीं हो लेकिन हकीकत यही है कि इनमें से जो भी पार्टी जहां भी सत्ता में रहती है वहाँ के सारी सरकारी संस्थान इन्ही की नीतियों के आधार पर ही तो चलते है ! इसलिए राजनैतिक पार्टीयों को तो सबसे पहले आरटीआई के अधीन होना चाहिए था ! असल में तो इन पार्टियों को मिलने वाला अवैध धन ही भ्रष्टाचार को पनपाने वाला है जिसका जिक्र मैंने अपने आलेख " अवैध चुनावी चंदा ही भ्रष्टाचार की असल जड़ है !!" में किया था ! आरटीआई के अंतर्गत आने से उस पर कुछ लगाम लगने कि आशंका ही इन पार्टियों को डरा रही है !
कितनी हास्यास्पद बात है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले के विरोध में पहला बयान भी उसी कांग्रेस पार्टी का आया जिसके नेता अपनी बात ही सुचना के कानून का अधिकार देनें को अपनी उपलब्धि बताकर ही शुरू करते हैं ! देश की सबसे बड़ी पार्टी को अब खुद को उस सुचना के अधिकार के कानून के अंतर्गत आनें में परेशानी होती दिख रही है ! कुछ ऐसा ही हाल दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा की है उसनें भी शुरूआती तौर पर इसका समर्थन करने के बावजूद उलटी गुलाटी मारनी पड़ी और उसको भी इसके अंतर्गत आने में परेशानी दिखाई पड़ रही है ! जब देश की दो बड़ी पार्टियों की हालत यह हो तो बाकी की पार्टियों की बात करना ही बैमानी है !