बुधवार, 28 अगस्त 2013

आर्थिक विफलता के पीछे उदारीकरण की नीतियों की विफलता है !

आज हमारे देश में बड़ी अजीब स्थति है  एक और हमारी सरकार जहाँ फ़ूड सिक्योरिटी बिल देश में लागू करके अर्थव्यवस्था पर एक और बोझ डाल देना चाहती है वहीँ हमारी अर्थव्यवस्था लगातार रसातल में जा रही है ! अगर अर्थव्यवस्था की हालत देखें तो आज १९९१ से भी बुरी स्थति हमारे सामनें आ खड़ी हुयी है जब भी सोना गिरवी रखा गया था और आज फिर वैसी ही चर्चाएं सरकार के मंत्रियों के मार्फ़त ही सुनने को मिल रही है तो क्या वाकई आज देश की अर्थव्यवस्था २२ साल बाद उसी स्थति में आ खड़ी हुयी है और भारत आर्थिक दिवालियेपन की और बढ़ रहा है ! 

मैनें आज १९९१ से भी बुरी स्थतियाँ इसलिए बतायी है क्योंकि उस समय तो हमारे सामनें विदेशी मुद्रा भण्डार की समस्या आ खड़ी हुयी थी जो आज भी हमारे सामनें आकर खड़ी हो गयी है और आज आयात करनें के लिए गिनती के दिनों की विदेशी मुद्रा हमारे पास है ! लेकिन घटता औधोगिक उत्पादन , बढती महंगाई और लगातार बढते सरकारी करों के बोझ नें हमारी घरेलु अर्थव्यवस्था का हाजमा भी खराब कर रखा है ! वैसे क्या यह अजीब संयोग नहीं है कि १९९१ में जब सोना गिरवी रखा था तब के प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी थे लेकिन मनमोहन सिंह जी उनके आर्थिक सलाहकार हुआ करते थे और आज वही मनमोहन सिंह जी खुद प्रधानमन्त्री है और उनकी ही आर्थिक नीतियां १९९१ के बाद से लागू है ! भले ही बीच में कुछ समय के लिए मनमोहन सिंह सत्ता से नहीं जुड़े हुए हो और सरकार भाजपा की हो लेकिन भाजपा नें भी वही आर्थिक नीतियां आगे बढ़ाई जिनकी शुरुआत मनमोहन सिंह जी नें १९९१ से शुरू की थी !

आज सबसे बड़ा सवाल यही खडा हो गया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के जिस समझौते ( गैट ) पर हस्ताक्षर करके भारत नें आर्थिक उदारीकरण की जो नीति अपनाई थी वो कहीं छलावा तो नहीं था जिसका अंदेशा कई लोगों नें उस समय भी जताया था और जिसके विरोध में स्वदेशी जागरण मंच नें आंदोलन भी चलाया था ! कई लोगों नें उस समय भी कहा था कि ये एक ऐसा दीर्घकालिक धोखा है जिसमें भारत एक बार फंस गया तो बाहर निकलना मुश्किल होगा लेकिन उस समय किसी नें ध्यान नहीं दिया या फिर जान बूझकर अनसुना कर दिया गया ! वैसे भी ये रास्ता भारतीय अर्थशास्त्र के ठीक उलट था जिसमें विदेशी भरोसे के सहारे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करनें का सपना देखा गया था ! 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

आयात का बढ़ता दबाव कहीं भारी ना पड़ जाए !!

हमें सपना तो दिखाया जा रहा है कि २०२० तक भारत एक महाशक्ति बन जाएगा लेकिन ये समझ में नहीं आता कि हमें दिखाए जा रहे इस सपनें का आधार क्या है ! क्योंकि आज के समय में ताकतवर वही देश माना जा सकता है जो आर्थिक रूप से समृद्ध हो और आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए उस देश के आयात से निर्यात अधिक होना पड़ेगा ! जिसके कारण ही उस देश के  विदेशी मुद्रा भण्डार में वृद्धि होती है लेकिन भारत के मामले में तो स्थतियाँ उलटी दिखाई पड़ रही है और हमारा निर्यात लगातार घट रहा है और आयात लगातार बढ़ रहा है  ! जिसके कारण विदेशी मुद्रा तो हमारे पास आने कि बजाय हमारे पास से जा रही है ! 

हमारा देश अपनी जरूरतों का साठ फीसदी से ज्यादा पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करता है जिसका कारण तो समझ में आता है क्योंकि अभी तक हम इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं ! लेकिन यूरिया और कीटनाशकों का भी अपनी जरूरतों का अस्सी फीसदी बाहर से आयात करते हैं जिसका विकल्प भी हम अपनें देश में अभी तक नहीं तैयार कर पाये हैं ! यूरिया और कीटनाशकों का घरेलु विकल्प तैयार कर सकते थे जिससे पर्यावरण को भी किसी तरह कि हानि नहीं होती लेकिन हमारी सरकारों कि कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अभी तक हम इस दिशा में नहीं बढ़ पाये हैं ! जिसका सबसे बड़ा कारण सरकारों का दोहरा रवैया ही नजर आता है क्योंकि एक तरफ तो हमारी सरकारें ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने कि बात करती है दूसरी और वही सरकारें यूरिया और कीटनाशकों कि बिक्री को प्रोत्साहित करने का काम करती हैं !

पेट्रोलियम पदार्थों और यूरिया आदि का तो हम शुरू से आयात करते रहें हैं लेकिन हैरानी कि बात तो यह है कि कृषि प्रधान देश होनें के बावजूद हमको खाध तेलों का भी आयात करना पड़ रहा है ! जिसके लिए केवल और केवल सरकारी नीतियां जिम्मेदार है क्योंकि १९९३-१९९४ तक हमारा देश इस मामले में अच्छी स्थति में था और अपनी जरुरत का महज पांच फीसदी खाध तेलों का आयात करना पड़ता था ! लेकिन आज हम अपनी जरूरतों का सतावन फीसदी खाध तेलों का आयात करने को मजबूर हैं ! और इसके लिए सरकारों कि आयात नीतियां ज्यादा जिम्मेदार रही जिन्होंने विदेशी तेलों के आयात के मामले में तात्कालिक फैसले लिए और हमारे किसानों के हितों की चिंता नहीं की जिसका प्रभाव यह पड़ा कि किसानों को तिलहनी फसलों से नुकशान होने लगा और उन्होंने तिलहनी फसलें ज्यादा उगाने कि बजाय तिलहनी फसलों से दूर होना ही अच्छा समझा ! किसी भी सरकार को कृषि पर नीति बनाने के लिए दीर्घकालिक परिणामों कि और ध्यान देना होता है लेकिन हमारे यहाँ नीतियां तात्कालिक तौर पर बनती है !