अपने देश के लोकतंत्र का भी अजीब हाल है ! जब नक्सली हिंसा में आम निरीह लोग मारे जाते हैं तो कोई उसको लोकतंत्र पर हमला नहीं मानता है ,उनके हमलों में सुरक्षाकर्मी मारे जाते हैं तब भी लोकतंत्र पर हमला नहीं माना जाता है ! और खासतौर पर राजनैतिक तबका तो बिलकुल भी नहीं मानता है ! लेकिन वहीँ हमला इस बार राजनैतिक वर्ग से जुड़े हुए बड़े लोगों पर हुआ तो वो लोकतंत्र पर हमला माना जा रहा है ! अब कोई ये तो समझाए कि यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें केवल और केवल राजनैतिक वर्ग का ही वर्चस्व है !
अजीब विडम्बना है जब देश के किसान आत्महत्या करते हैं तब लोकतंत्र को कोई फर्क नहीं पड़ता है और तब भी लोकतन्त्र को कोई फर्क नहीं पड़ता है जब आधी रात के वक्त देश के लोगों पर इसी लोकतंत्र की रक्षा का दंभ भरने वाले लोगों के इशारे पर लाठियां भांजी जाती है और आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं जिसमें भले ही एक महिला की जान चली जाती है ! देश की आधी आबादी भूख और कुपोषण की मार झेलते हुए भले ही मर जाए लेकिन लोकतंत्र को उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता है ! लोकतंत्र के प्रतिनिधित्व वाले मुख्य केन्द्रों वाले शहर में जब किसी नारी के साथ दुराचार होता है तब भी लोकतंत्र के माथे पर शिकन नहीं आती है ! यह तब भी फर्क नहीं पड़ता जब उस नक्सली हमले में केवल साधारण नागरिक ही मारे जाते ! लेकिन इस बार नक्सलियों नें निशाना बना दिया बड़े राजनेताओं को और हो गया लोकतंत्र पर हमला !
देश के हर नागरिक की मौत पर दुःख होता है लेकिन यह दुःख तब और बढ़ जाता है जब उसमें भी आम और खास का फर्क किया जाए ! और यही वो सोच है जो नक्सलवादियों और अलगाववादियों को जमीन मुहैया करवा रही है ! ये वो सोच है जो शासक और शासित के भेद को जन्म देती है जबकि सच्चे लोकतंत्र में ऐसी सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता है ! लेकिन राजनेताओं का वर्ग आज इसी सोच से ग्रसित है जिसके कारण वो साधारण जनता की जगह अपने को मानकर नहीं सोचता है बल्कि उसकी सोच उस मानसिकता से ग्रसित है जिस मानसिकता से राजशाही का जन्म होता है ! अगर ये नहीं होता और सत्ता पर काबिज लोग आम आदमी के दर्द को अपना दर्द मानते तो नक्सली समस्या का समाधान उसी दिन हो जाता जिस दिन पहली बार नक्सलियों के हाथों कोई आम नागरिक मारा गया था !
अगर नक्सलवाद और अलगाववाद जैसी समस्याओं से छुटकारा पाना है तो इस दोहरी सोच से बाहर निकलकर रास्ता निकालना होगा ! दिल्ली की मृग्चारिमिका से बाहर निकलकर देश के सुदूर इलाकों में झांकना होगा और वहाँ के लोगों के दर्द को समझना होगा ! और ना केवल समझना होगा बल्कि दूर करनें के प्रयास भी करनें होंगे ! सरकारी शोषण से उन लोगों को निजात दिलानी होगी और नक्सलवाद की पनपने वाली पौध को बंद करना होगा ! और अगर ऐसा कर पाए तो उस के बाद नक्सलियों की ताकत ऐसे ही आधी हो जायेगी और तब उन पर कार्यवाही की जा सकती है ! वर्ना ये वो समस्याएं हैं जो केवल सरकारी दमन के सहारे नहीं सुलझाई जा सकती है !
अजीब विडम्बना है जब देश के किसान आत्महत्या करते हैं तब लोकतंत्र को कोई फर्क नहीं पड़ता है और तब भी लोकतन्त्र को कोई फर्क नहीं पड़ता है जब आधी रात के वक्त देश के लोगों पर इसी लोकतंत्र की रक्षा का दंभ भरने वाले लोगों के इशारे पर लाठियां भांजी जाती है और आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं जिसमें भले ही एक महिला की जान चली जाती है ! देश की आधी आबादी भूख और कुपोषण की मार झेलते हुए भले ही मर जाए लेकिन लोकतंत्र को उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता है ! लोकतंत्र के प्रतिनिधित्व वाले मुख्य केन्द्रों वाले शहर में जब किसी नारी के साथ दुराचार होता है तब भी लोकतंत्र के माथे पर शिकन नहीं आती है ! यह तब भी फर्क नहीं पड़ता जब उस नक्सली हमले में केवल साधारण नागरिक ही मारे जाते ! लेकिन इस बार नक्सलियों नें निशाना बना दिया बड़े राजनेताओं को और हो गया लोकतंत्र पर हमला !
देश के हर नागरिक की मौत पर दुःख होता है लेकिन यह दुःख तब और बढ़ जाता है जब उसमें भी आम और खास का फर्क किया जाए ! और यही वो सोच है जो नक्सलवादियों और अलगाववादियों को जमीन मुहैया करवा रही है ! ये वो सोच है जो शासक और शासित के भेद को जन्म देती है जबकि सच्चे लोकतंत्र में ऐसी सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता है ! लेकिन राजनेताओं का वर्ग आज इसी सोच से ग्रसित है जिसके कारण वो साधारण जनता की जगह अपने को मानकर नहीं सोचता है बल्कि उसकी सोच उस मानसिकता से ग्रसित है जिस मानसिकता से राजशाही का जन्म होता है ! अगर ये नहीं होता और सत्ता पर काबिज लोग आम आदमी के दर्द को अपना दर्द मानते तो नक्सली समस्या का समाधान उसी दिन हो जाता जिस दिन पहली बार नक्सलियों के हाथों कोई आम नागरिक मारा गया था !
अगर नक्सलवाद और अलगाववाद जैसी समस्याओं से छुटकारा पाना है तो इस दोहरी सोच से बाहर निकलकर रास्ता निकालना होगा ! दिल्ली की मृग्चारिमिका से बाहर निकलकर देश के सुदूर इलाकों में झांकना होगा और वहाँ के लोगों के दर्द को समझना होगा ! और ना केवल समझना होगा बल्कि दूर करनें के प्रयास भी करनें होंगे ! सरकारी शोषण से उन लोगों को निजात दिलानी होगी और नक्सलवाद की पनपने वाली पौध को बंद करना होगा ! और अगर ऐसा कर पाए तो उस के बाद नक्सलियों की ताकत ऐसे ही आधी हो जायेगी और तब उन पर कार्यवाही की जा सकती है ! वर्ना ये वो समस्याएं हैं जो केवल सरकारी दमन के सहारे नहीं सुलझाई जा सकती है !
14 टिप्पणियां :
इसी दोहरी सोच के चलते सरकार कोई कठोर कदम नही उठा पा रही है,बहुत ही सामयिक आलेख.
बिल्कुल सही कहा आपने, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सही लिखा आपने पूरण जी।
आपने सत्य को इंगित किया है.यह दोहरी सोच ही आज की परिस्थिति के लिए जिम्मेदार बनी है.नक्सलवाद की आड में पहले भी राजनीति की रोटी सेंकी गई है और अब फिर सेंकी जा रही है.
सरकार को अपनी सोच बदलकर नक्सलवाद के प्रति ठोस कदम उठाना होगा ,,
Recent post: ओ प्यारी लली,
कदम उठाने के लिए एकांगी सोच होनी चाहिए जिसका अभाव है !!
आभार !!
राम राम ,आभार ताऊ !!
आभार !!
सही कह रहे है आप !!
आभार !!
आपनें सही कहा है !!
सादर आभार !!
नक्सलवाद की जड़ें राजनीति के तले फल फूल रही हैं
आपने बिलकुल सही कहा दोहरी मानसिकता पर आधारित यह समस्या
कभी हल नहीं हो पायेगी
सार्थक आलेख
बधाई
सादर आभार !!
बिलकुल यह वही समस्याएँ है जो केवल सरकारी दमन के साहरे नहीं सुलझाई जा सकती मगर विडम्बना तो यही है न की हमारा मुल्क केवल कहने को लोकतन्त्र हैं उसमें लोकतन्त्र जैसा है कुछ भी नहीं,इसे तो अच्छा यहाँ लंदन में हैं भले ही यहाँ भी रानी का खाता जनता की गढ़ी कमाई से भरा जाता हो। मगर फिर भी यहाँ आम नागरिक ना तो हैरान है और ना ही परेशान...यह की राजनाइत्क व्यवस्था को देखते हुए लगता है की यहाँ के राजनेता यदि राज परिवार के लिए जनता को लूटते भी हैं तो बदले में जनता को देते भी बहुत कुछ हैं जिसे आमजन दुखी दिखाई नहीं देता...
सही कहा है आपनें !!
आभार !!
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