सोमवार, 5 जुलाई 2021

कांग्रेसमय होता संघ परिवार !!


आज की भाजपा कांग्रेस के रास्ते पर चलने को आमादा है और आज स्थतियां बदल चुकी है संघ भाजपा के पीछे चलने पर मजबूर है ! २०१४ से पहले भाजपा में क्या होगा यह संघ तय करता था लेकिन फिर स्थतियाँ बदलती गयी और आज संघ भाजपा के पीछे चलने पर मजबूर हो गया है और वही कर रहा है जो भाजपा चाहती है ! यही वही संघ है जिसनें १९८० के दशक में जनसंघ से भाजपा बनने के बाद भाजपा को सेक्युरिज्म का रोग लगा था तो वीएचपी का गठन कर दिया था और भाजपा फिर से उसी रास्ते पर आने को मजबूर हो गयी थी ! पर उस समय संघ के सरसंघचालक अपनें अन्दर इतनी क्षमता रखते थे !

संघ के वर्तमान सरसंघचालक वैसे नहीं है २०१४ के बाद इन्होने वैसे भी ख़ामोशी अख्तियार कर ली थी फिर भी पुरानी आदत आसानी से नहीं छुटती तो गाहे बगाहे बयानबाजी तो कर ही देते थे ! ऐसी ही बयानबाजी में इन्होने बिहार चुनावों से ठीक पहले आरक्षण की समीक्षा वाला बयान दिया और भाजपा हार गयी तो भाजपा के कर्ताधर्ता तो ऐसे ही मौके की ताक में थे तो दोष इनको दे दिया ! उसके बाद तो ये पूरी तरह दबाव में आ गए और भाजपा के कर्ताधर्ताओं के अनुसार चलने के लिए बाध्य हो गए ! यह इनकी कमजोरी थी क्योंकि अतीत में संघ का उद्देश्य हिन्दूहित की बात करना था भाजपा को सत्ता दिलाना नहीं ! 

उसके बाद तो भाजपा के कर्ताधर्ताओं नें संघ से जिन संस्थाओं से उनके विरुद्ध आवाज उठ सकती थी उन सबको किनारे लगा दिया क्योंकि वो मुखिया को झुकाने में कामयाब हो गए तो उनको कौन रोक सकता था ! इसका परिणाम ये हुआ कि संघ के करोड़ों कार्यकर्ताओं की मेहनत बेकार हो गयी और संघ का अनुषंगी संघटन सत्ता पर काबिज तो हो गया पर वो संघ से ही ऊपर निकल गया ! १९२५ से लेकर २०१४ तक की मेहनत विफल हो गयी आज हिन्दुओं की रोने वाला कोई संघटन नहीं है ! 

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

मोदी सरकार विवादित मुद्दों पर रक्षात्मक क्यों !!

चुनावी घोषणापत्र में मुद्दे इसीलिए शामिल किये जाते हैं ताकि जनता को यह पता लग सके कि उस पार्टी की सरकार बनी तो उसकी कार्ययोजना क्या होगी और उन्ही मुद्दों के आधार पर ही चुनावी सभाओं में भाषण दिए जाते हैं ! लेकिन क्या हकीकत में सत्ता में आने के बाद उन वादों और चुनावी घोषणापत्रों में शामिल मुद्दों का कोई महत्व सत्तारूढ़ पार्टी के लिए रह भी जाता है ! अगर मोदी सरकार के इस शुरूआती दौर को देखें तो सबकुछ उल्टा उल्टा सा ही दिखाई दे रहा है ! वादे और मुद्दे कुछ और थे और सरकार का रवैया कुछ और दिखा रहा है ! 

जम्मू काश्मीर से धारा ३७० को हटाने के पक्ष में भाजपा सदा से रही है और ये मुद्दा भाजपा के हर घोषणापत्र में शामिल रहा है ! वाजपेयी सरकार के समय में इसको नहीं हटा पानें को लेकर भाजपा हमेशा यही दलील देती रही कि गटबंधन की मजबूरियों के कारण उसको इस मुद्दे को ठन्डे बस्ते में डालना पड़ा लेकिन अब भी उसके लिए ये मुद्दा है ! लेकिन अब जब भाजपा फिर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है तो उसको ये क्यों कहना पड़ रहा है कि धारा ३७० को हटाने का अभी कोई इरादा नहीं है ! जब प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री जितेन्द्रसिंह नें धारा ३७० को हटाने को लेकर बयान दिया था तभी सरकार नें उस बयान को उनका निजी बयान कहकर पीछा छुडाया था और अब गृह राज्यमंत्री किजिजू भी कह रहें हैं कि धारा ३७० को हटाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है !

मोदी जी नें अपनें चुनावी भाषणों में पिंक रिवोल्यूशन के नाम पर कत्लखानों को मिलने वाली सब्सिडी को लेकर तत्कालीन मनमोहन सरकार और सबसे ज्यादा सत्तासीन पार्टी कांग्रेस पर जबरदस्त हमला बोला था ! लेकिन हैरानी की बात है कि जब मोदी सरकार का खुद का बजट संसद में प्रस्तुत हुआ तो कत्लखानों को लेकर वही नीति अपनाई गयी जिसकी आलोचना करते हुए मोदी जी सत्ता तक पहुंचे थे ! वैसे भी गौहत्या भाजपा का सदैव मुद्दा रहा है फिर क्या कारण था कि मोदी सरकार को उन्ही नीतियों पर आगे बढ़ना पड़ रहा है जिन को लेकर वो कांग्रेस पर हमेशा से आक्रामक रहे हैं ! 

सोमवार, 17 जून 2013

जेडीयू नें कहीं आत्मघाती कदम तो नहीं उठा लिया है !!

आखिरकार एनडीए से जेडीयू का रिश्ता नितीश कुमार जी की हठधर्मिता की भेंट चढ ही गया ! हालांकि नितीश कुमार जी के तेवरों को देखते हुए यह पहले ही हो जाना चाहिए था लेकिन शरद यादव जी और भाजपा की गटबंधन बनाए रखने कि चाहत नें ही इसे इतने दिनों तक इसको बनाए रखा था ! लेकिन अबकी बार नितीशजी  शरद यादवजी  पर भारी पड़े और अपनी जिद को अंजाम दे ही दिया जिसकी छटपटाहट उनके दिल में पिछले दो सालों से उबाल मार रही थी ! लेकिन क्या ऐसा करके नितीश जी फायदे में रहेंगे या फिर जेडीयू एक बार सिमट जाएगा और राजद फिर से बिहार पर काबिज हो जाएगा !

जेडीयू के एनडीए गटबंधन से बाहर होने से भले ही इसे शुरूआती तौर पर भाजपा के लिए झटका माना जा रहा हो और इसका नुकशान तो भाजपा को भी होगा लेकिन इसकी एक हकीकत ये भी है कि भाजपा को जितना नुकशान होगा उससे कई गुना नुकशान जेडीयू को होगा ! आज की तारीख में नितीश सरकार पर इससे कोई खतरा नहीं हो और अपना कार्यकाल भी यह सरकार पूरा कर ले तो भी नितीश के लिए अग्निपरीक्षा आगामी लोकसभा चुनाव और ढाई साल बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में होगी ! अभी तक नितीश नें भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे तब भी जेडीयू भाजपा गटबंधन को मिलने वाले मतों और राजद लोजपा को मिलने वाले मतों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था ! और अब भाजपा के अलग होनें के बाद तो निश्चित रूप से जेडीयू पर राजद भारी पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है !

नितीश कुमार जी नें जिन मुस्लिम वोटबैंक को ध्यान में रखकर ये कदम उठाया उसका भी भरोसा नहीं है कि वो भी जेडीयू के पाले में आएगा या नहीं और भाजपा के साथ अगड़ी जातियों का जो वोटबैंक था वो भी हाथ से निकल गया ! इस तरह कहीं जेडीयू कि हालत ना माया मिली ना राम वाली हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए ! भाजपा और जेडीयू दोनों के लिए भले ही अलग होना नुकसानदेह हो लेकिन लालू जी के चेहरे पर बैठे बिठाए इस फैसले नें मुस्कान ला दी और उनकी मुस्कान व्यर्थ भी नहीं है क्योंकि इसका असली फायदा तो लालू जी को ही मिलना है ! उनके लिए सत्ता का बनवास खतम होनें के संकेत ये फैसला जो दे रहा है !

बुधवार, 12 जून 2013

आडवाणी जी की शतरंजी चालों में चित हो गयी भाजपा !!

भाजपा में पिछले पांच दिनों में जो घटनाक्रम सामने आया उसनें भाजपा की जगहंसाई करवाने कोई कसर नहीं छोड़ी ! और खासकर लालकृष्ण आडवाणी जी नें तो मानो भाजपा की जगहंसाई का ठान ही राखी थी ! पहले गोवा में कार्यकारिणी की बैठक में नहीं जाना और उसके बाद जिस तरह से इस्तीफे दिए ! मानो आडवाणी जी कह रहे हो कि में तो बदनाम होऊंगा ही लेकिन जितनी बदनामी में भाजपा की कर सकता हूँ उतनी तो करने की कोशिश तो जरुर करूँगा !

इस पुरे घटनाक्रम को देखें तो सबसे ज्यादा किरकिरी भी आडवाणी जी की हुयी और भाजपा के कार्यकर्ताओं के मन में आडवाणी जी के प्रति जो सम्मान पहले था वो अब नहीं रहेगा ! जिसके लिए उत्तरदायी केवल और केवल आडवाणी जी  ही है क्योंकि पिछले पांच दिनों से चले घटनाक्रम में आडवाणी जी का चेहरा एक सुलझे हुए बुजुर्ग नेता के बजाय सत्ता लालसा में डूबे नेता का ही दिखाई दिया ! पार्टी के लोकतंत्र का सम्मान करने कि बजाय आडवाणी जी नें एक अलग और ऐसा रास्ता अपनाया जो पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र के विपरीत जाता था ! आडवाणी जी की अपनी छवि भले ही धूमिल हुयी हो लेकिन क्रमबद्ध चले इस घटनाक्रम से पार्टी की छवि को भी नुकशान तो पहुंचा ही है !

आडवाणी जी को पहले ही पता था कि वो गोवा जाकर भी नरेंद्र मोदी जी को चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष बनने से रोक नहीं सकते क्योंकि भाजपा के ज्यादातर जनाधार वाले नेता नरेंद्र मोदी जी के पक्ष में थे ! इसीलिए उन्होंने कोपभवन जाने का फैसला किया और मीडिया में बीमारी की बात फैलाकर घर बैठे रहे ! लेकिन फिर भी वो नरेंद्र मोदी जी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनने से रोक नहीं पाए ! तब आडवाणी जी नें अपनी दूसरी चाल का पासा फैंका और चुन चुनकर पदों से इस्तीफे दिए ! जिनको बाद में वापिस भी ले लिया ! और आडवाणी जी अपनी दूसरी चाल में कामयाब रहे !

शनिवार, 11 मई 2013

भाजपा आत्ममंथन करना ही नहीं चाहती है !!

अभी ताजा ताजा आये कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणामों नें भाजपा के रणनीतिकारों में जो लोग शामिल है उनकी रणनीति और उनकी काबिलियत कि कलई खोल कर रख दी है ! क्योंकि कर्नाटक के चुनाव ऐसे समय में हुए हैं जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार अनगिनत घोटालों के आरोपों से घिरी हुयी थी ! महंगाई लोगों को परेशान कर रही थी और केन्द्र सरकार लोगों को राहत देने के बजाय अपने फैसलों से जनता पर और ज्यादा बोझ  बढ़ा रही है ! फिर भी भाजपा के रणनीतिकार उसका फायदा उठानें में नाकाम रहे हैं और वो भाजपा को दुबारा सत्ता में नहीं ला सके ! 

पिछले २००९ के लोकसभा चुनावों से लेकर अभी तक देखें तो भाजपा कांग्रेस की नाकामियों का फायदा उठाने में नाकाम रही है ! जिसका सबसे बड़ा कारण भाजपा अपनी अंदरूनी राजनीति में इस कदर उलझी हुयी रहती है जिसके कारण उसका शीर्ष नेतृत्व उहापोह कि स्थति से बाहर निकलकर कुछ सोच ही नहीं पाता है ! और अपनी अंदरूनी गोटियां फिट करने कि जुगत लड़ाने से आगे कि सोच ही नहीं पाता है ! दरअसल देखा जाए तो भाजपा कांग्रेस से नहीं हार रही है बल्कि अपनी ऊहापोह की स्थति से बाहर नहीं निकल पाने के कारण हार रही है ! भाजपा सत्ता में नहीं है फिर भी गटबंधन के सहयोगियों के आगे मिमियाती सी नजर आती है जिसके कारण जनता के पास भाजपा की कमजोरी का सन्देश जाता है और जनता सहसा भाजपा पर विश्वास नहीं कर पाती है और इसका उसके कार्यकर्ताओं पर नकारात्मक असर पड़ता है ! 

कर्नाटक चुनावों के परिणामों को देखा जाए तो इन चुनावों के परिणामों कि पटकथा तो उसी समय लिखी जा चुकी थी जब कांग्रेस नेता हंसराज भारद्वाज को वहाँ का राज्यपाल बनाया गया था ! ये वही हंसराज भारद्वाज थे जिन्होंने केन्द्र में कानून मंत्री रहते हुए बिना सीबीआई से सलाह किये बोफोर्स घोटाले के मुख्य आरोपी आतोवियो क्वात्रोची के बंद खातों को खुलवाया था ! कर्नाटक भाजपा में येद्दुरप्पा अकेले ऐसे नेता थे जो व्यापक जनाधार रखते थे और उनको कमजोर किये बगैर कर्नाटक में कांग्रेस को अपना भविष्य नजर नहीं आ रहा था ! इसी को ध्यान में रखते हुए हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था और हंसराज भारद्वाज नें राज्यपाल के संवैधानिक पद का दुरूपयोग करके वो  काम बखूबी किया जिसके लिए उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था !

राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के विरोध में भाजपा नें राष्ट्रपति से शिकायत करके उनको बदलने कि मांग भी की थी लेकिन वही भाजपा चुनावों में जनता को यह समझाने में नाकाम रही कि किस तरह राज्यपाल ने सवैंधानिक पद के दुरूपयोग करके येद्दुरप्पा को बदनाम किया है ! और भाजपा जनता को समझाती भी किस मुहं से क्योंकि वो तो चुनावों से पहले ही येद्दुरप्पा को किनारे लगा चुकी थी ! दरअसल येद्दुरप्पा को किनारे लगाने में उन शीर्ष नेताओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता जिनके चहेते अनंतकुमार थे और वे शुरू से ही अनंतकुमार को ही मुख्यमंत्री बनवाना चाहते थे लेकिन येद्दुरप्पा के कद्दावर कद के सामने अनंतकुमार का कद छोटा पड़ गया ! उसके बाद भी येद्दुरप्पा को कौर्ट से बरी होने के बावजूद भी मुख्यमंत्री कि कुर्सी से दूर ही रखा गया जिससे क्षुब्ध होकर येद्दुरप्पा पार्टी को ही अलविदा कह गए लेकिन शीर्ष नेतृत्व को कर्नाटक में हारना मंजूर था लेकिन अपनी चालबाजियों को छोडना मंजूर नहीं था !