दिल्ली दामिनी सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में अठारह वर्ष से कम आयु के अपराधी के मामलें में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ( बाल न्यायालय ) की तरफ से आये फैसले नें पुरे देश को निराश हो किया है ! जिसका कारण यह है कि उसनें जो अपराध किया है वो कहीं से भी किसी बाल अपराधी जैसा नहीं है और जिस दिन उसनें यह जघन्य अपराध किया था उस दिन अठारह वर्ष का होनें में महज कुछ ही महीनें बाकी थे ! उन अपराधियों नें जो अपराध किया था उसके लिए लोग कड़ी सजा की मांग कर रहे थे लेकिन एक अपराधी का कानूनन नाबालिग ( ? ) निकल जाना और सजा से बच जाना कई सवाल खड़े करता है !
जिस तरह जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड नें उस अपराधी को तीन साल सुधार गृह भेजनें का फैसला सुनाया है उसनें एक बार इस बहस की तो शुरुआत कर ही दी कि ऐसे संगीन अपराधों में लिप्त लोगों के अपराधों की सुनवाई जुवेनाइल जस्टिस एक्ट ( किशोर न्याय कानून ) के अंतर्गत होनी चाहिए अथवा नहीं ! वैसे इसमें जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की बात करें तो उसनें तो फैसला कानून के हिसाब से ही दिया है और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में सजा का तो प्रावधान तो है ही नहीं बल्कि अपराध की श्रेणी के आधार पर सुधार गृह भेजनें के ही प्रावधान है और बोर्ड नें उसी आधार पर उसे तीन साल के लिए सुधार गृह भेजनें की व्यवस्था दी है जो की इस कानून के तहत अधिकतम सजा है !
इस फैसले के बाद अब जरुरत इस बात की है इस तरह के अपराधी अगर इस कानून की आड़ में सजा से बचकर निकल रहे हैं तो इस कानून में सुधार की आवश्यकता तो अवश्य है ! बालिग़ होनें में बचे हुए समय और अपराध की श्रेणी में तालमेल करते हुए इस कानून में सुधार किया जाना चाहिए क्योंकि इसी मामले को देखिये अपराध के आठ महीनें बाद आये इस फैसले में वो अपराधी आज की तारीख में नाबालिग नहीं है लेकिन उसे जो सजा मिली है उसमें उसको नाबालिग होनें का फायदा मिल गया है ! इसलिए इस पर दुबारा विचार करते हुए सुधार किया जाना चाहिए और आशा है कि सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई पूर्ण होनें पर सर्वोच्च न्यायालय से जरुर कुछ निकलेगा !