शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

मोदी सरकार विवादित मुद्दों पर रक्षात्मक क्यों !!

चुनावी घोषणापत्र में मुद्दे इसीलिए शामिल किये जाते हैं ताकि जनता को यह पता लग सके कि उस पार्टी की सरकार बनी तो उसकी कार्ययोजना क्या होगी और उन्ही मुद्दों के आधार पर ही चुनावी सभाओं में भाषण दिए जाते हैं ! लेकिन क्या हकीकत में सत्ता में आने के बाद उन वादों और चुनावी घोषणापत्रों में शामिल मुद्दों का कोई महत्व सत्तारूढ़ पार्टी के लिए रह भी जाता है ! अगर मोदी सरकार के इस शुरूआती दौर को देखें तो सबकुछ उल्टा उल्टा सा ही दिखाई दे रहा है ! वादे और मुद्दे कुछ और थे और सरकार का रवैया कुछ और दिखा रहा है ! 

जम्मू काश्मीर से धारा ३७० को हटाने के पक्ष में भाजपा सदा से रही है और ये मुद्दा भाजपा के हर घोषणापत्र में शामिल रहा है ! वाजपेयी सरकार के समय में इसको नहीं हटा पानें को लेकर भाजपा हमेशा यही दलील देती रही कि गटबंधन की मजबूरियों के कारण उसको इस मुद्दे को ठन्डे बस्ते में डालना पड़ा लेकिन अब भी उसके लिए ये मुद्दा है ! लेकिन अब जब भाजपा फिर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है तो उसको ये क्यों कहना पड़ रहा है कि धारा ३७० को हटाने का अभी कोई इरादा नहीं है ! जब प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री जितेन्द्रसिंह नें धारा ३७० को हटाने को लेकर बयान दिया था तभी सरकार नें उस बयान को उनका निजी बयान कहकर पीछा छुडाया था और अब गृह राज्यमंत्री किजिजू भी कह रहें हैं कि धारा ३७० को हटाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है !

मोदी जी नें अपनें चुनावी भाषणों में पिंक रिवोल्यूशन के नाम पर कत्लखानों को मिलने वाली सब्सिडी को लेकर तत्कालीन मनमोहन सरकार और सबसे ज्यादा सत्तासीन पार्टी कांग्रेस पर जबरदस्त हमला बोला था ! लेकिन हैरानी की बात है कि जब मोदी सरकार का खुद का बजट संसद में प्रस्तुत हुआ तो कत्लखानों को लेकर वही नीति अपनाई गयी जिसकी आलोचना करते हुए मोदी जी सत्ता तक पहुंचे थे ! वैसे भी गौहत्या भाजपा का सदैव मुद्दा रहा है फिर क्या कारण था कि मोदी सरकार को उन्ही नीतियों पर आगे बढ़ना पड़ रहा है जिन को लेकर वो कांग्रेस पर हमेशा से आक्रामक रहे हैं ! 

शनिवार, 21 जून 2014

हिंदी का विरोध किया जाना कितना उचित है !!

गृह मंत्रालय द्वारा हिंदी को लेकर दिए गए एक आदेश का जिस तरह से तमिलनाडु के राजनितिक नेताओं द्वारा विरोध किया जा रहा है वो गलत है ! गृह मंत्रालय के आदेश को समझने की कोशिश तक इन नेताओं नें नहीं की और जैसे कोई सांड लाल कपडे को देखकर भडकता है वैसे ही इन्होने बस हिंदी का नाम आया और विरोध शुरू कर दिया ! गृह मंत्रालय का आदेश था कि सरकारी विभागों के जिन लोगों का काम शोसल मीडिया में सामग्री जारी करनें का है वो लोग केवल अंग्रेजी में ही सामग्री डालने की बजाय हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में प्रेषित करें और सरकारी कामकाज भी दोनों भाषाओं में हो ! अब इसमें गलत क्या है ! 

हिंदी इस देश की संविधानप्रदत मातृभाषा और राजभाषा है जिसका विरोध करना गलत है ! यह अलग बात है कि ऐसे नेताओं की कुटिल चालों के कारण हिंदी को आज भी उसका असली हक मिला नहीं है ! इन तमिल नेताओं का अंग्रेजी मोह और हिंदी विरोध समझ से परे है क्योंकि तमिलनाडु की मातृभाषा तमिल है ना कि अंग्रेजी और हिंदी और तमिल को लेकर इनका विरोध नहीं है ! इनके विरोध का लक्ष्य केवल और केवल इतना है कि हिंदी पर अंग्रेजी के वर्चस्व को बरकरार रखा जाए ! और हिंदी को उसका असली दर्जा देनें को वो अपनें ऊपर हिंदी थोपना मान रहे हैं तो फिर क्यों नहीं बहुसंख्यक आबादी उनकी जिद के कारण अंग्रेजी को अपनें ऊपर थोपना मान सकती है !

यह सच है कि भारत बहुभाषी देश है और देश के लोगों को आपस में संवाद करने के लिए एक भाषा होनी चाहिए और वो भाषा वही हो सकती है जिसको सबसे ज्यादा लोग बोलते और समझते हो ! इस देश में हिंदी को ७८% लोग बोलते और समझते हैं ! अंग्रेजी बोलने और समझने वाले लोगों की संख्या इससे बहुत कम है और उसमें भी ज्यादातर लोग वो हैं जो हिंदी को भी बोलने और समझने वाले हैं इसलिए केवल अंग्रेजी बोलने और समझने वालों की संख्या तो महज कुछ प्रतिशत ही है ! ऐसे में संवाद की भाषा हिंदी ही हो सकती है ना कि अंग्रेजी ! 

शनिवार, 17 मई 2014

"अच्छे दिन आने वाले है" स्लोगन का जादू खूब चला !!

"अच्छे दिन आने वाले है" स्लोगन का जादू इस बार लोकसभा चुनावों में जमकर चला है जिसका परिणाम सबके सामने हैं ! भाजपा अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत को पार कर गयी और एनडीए सवा तीन सौ सीटों को पार कर गया ! मोदी के नेतृत्व में मिले इस जनादेश का विश्लेषण तो राजनैतिक पंडित अगले कुछ दिनों तक करते रहेंगे लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जनता ने  मोदी पर बेतहाशा भरोसा किया है ! यही कारण है कि आजादी के बाद पहली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी को जबरदस्त बहुमत दिया है और इस तरह का स्पष्ट बहुमत भी कांग्रेस तब तक ही पाती रही है जब तक उसके सामने मजबूत चुनौती देनें लायक पार्टियां नहीं थी और जब अन्य पार्टियां मजबूती के साथ उभरी तो कांग्रेस को भी स्पष्ट बहुमत के लाले पड़ गए !

इस बार जनता नें खुलकर कई मसलों पर स्पष्ट राय दे दी जिसको अगर राजनैतिक पार्टियां समझ जाए तो उनके लिए भी अच्छा ही होगा ! तुस्टीकरण की राजनीति के सहारे सत्ता तक पहुँचने वाली पार्टियों पर लगाम लगाकर उनको स्पष्ट सन्देश दे दिया कि उनको तुस्टीकरण के सहारे साधना बंद कीजिये ! उनकी पसंद तुस्टीकरण की राजनीति नहीं बल्कि विकास की राजनीति है ! यही कारण है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के सहारे सत्ता तक पहुँचने का खवाब दखने वाली पार्टियों के पर जनता नें कुतर दिए ! उनको जनता नें इस लायक ही नहीं छोड़ा कि वो ऐसी कोई कोशिश ही कर सके !

गटबंधन की मजबूरियों का गलत फायदा उठाने वाली पार्टियों को भी जनता नें उनकी औकात दिखा दी ! डीएमके, सपा,बसपा ,राजद जैसी पार्टियों को मतदाताओं नें स्पष्ट सन्देश दे दिया कि वे उनको मुर्ख समझने की भूल कतई ना करें ! अगर उनके पास मजबूत विकल्प होगा तो वो उनको किनारे लगाने में कोई कोताही नहीं बरतेंगे !  उसने ऐसी सभी पार्टियों को इस बार उन सभी पार्टियों को सबक सिखाया है जो केन्द्र में तो गलबहियां डालकर सत्तासुख भोगते हैं और राज्यों में लड़ने का नाटक करते हैं ! अबकी बार जनता उनकी असलियत समझ गयी और उनको उस लायक ही नहीं छोड़ा कि वो जनता को मुर्ख बनाने की कोई कोशिश भी कर सके ! 

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

कालेधन पर मोदी का सवाल और कांग्रेस का जबाब !!

कल बेंगलुरु से नरेंद्र मोदी ने सरकार द्वारा सपनें के आधार पर खजाने की खुदाई करवाने को आधार बनाकर सरकार पर निशाना साधा और उसके बाद जो कांग्रेस का जबाब आया वो वाकई हास्यास्पद ही कहा जाएगा ! मोदी नें कहा था कि सरकार एक आदमी के सपनें को आधार बनाकर खुदाई करवा रही है लेकिन इससे कई गुना ज्यादा खजाना तो स्विस बैंकों में जमा है जिसको लानें में सरकार की दिलचस्पी क्यों नहीं दिखा रही है ! उनका कहना सत्य भी है क्योंकि यह खजाना तो ३००० करोड का ही है जबकि कालाधन लाखों करोड का है !

जिसके जबाब में कांग्रेस प्रवक्ता रेणुका चौधरी यह कहना कि "कालेधन को लेकर नरेंद्र मोदी के पास अगर जानकारियाँ है तो वो सरकार को देनी चाहिए ! सरकार उन पर भी कारवाई करेगी " उनको ही हंसी का पात्र बना दिया है और कांग्रेस की वो मंशा भी साफ़ हो गयी जो कालेधन को लेकर पहले भी कई बार जाहिर हो चुकी है ! वैसे रेणुका जी किन जानकारियों की बात कर रही है यह तो उनको बताना ही चाहिए ! तत्कालीन वितमंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कालेधन पर स्वेत पत्र लाया जा चूका है क्या उसका कोई महत्व कांग्रेस की नजर में है भी या नहीं ! वैसे भी उसमें कई बातों को गौण कर दिया गया था लेकिन जितनी जानकारियाँ उसमें थी उनके आधार पर कोई कारवाई क्यों नहीं हुयी !

कालेधन का मामला ऐसा तो है नहीं कि यह पहली बार मोदी नें ही उठाया है ! बाबा रामदेव इस मुद्दे पर लगातार २००४ से संघर्षरत है और कई बड़े बड़े आंदोलन सरकार की नाक के निचे दिल्ली में आयोजित कर चुके हैं ! देश भर में घूम घूम कर जनता को बता चुके हैं ! २७ फरवरी २०११ और ४ जून २०११ को दिल्ली में बड़े आंदोलनों को अंजाम दे चुके हैं जिसमें ४ जून वाले आंदोलन पर तो पुलिसिया कारवाई भी हुयी थी ! यह सब कांग्रेस को याद है कि नहीं और क्या उसको यह भी याद नहीं कि उसके चार चार मंत्री इसी कालेधन के मुद्दे पर बाबा रामदेव से बात करनें हवाईअड्डे तक गए थे ! फिर सरकार क्यों सोती रही क्यों नहीं कालेधन वाले मामले पर सरकार गंभीर दिखाई दी !

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

सपनों के सच होने पर क्या यकीन किया जा सकता है !!

साधू को स्वपन में खजाना दिखने और उसके बाद खुदाई चालु करने के कारण उन्नाव जिले का डोडिया खेड़ा गाँव अचानक मीडिया में चर्चित हो गया !  लेकिन क्या स्वपन में दिखाई देने वाली बातें सच भी हो सकती है इसको लेकर एक नयी बहस जरुर छिड गयी ! हालांकि स्वपनों को लेकर हमेशा से विरोधाभासी रुख ही रहा है और कुछ लोग जहां स्वपनों की सत्यता को सिरे से नकारते रहे हैं वही ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो स्वप्नों की सत्यता पर शतप्रतिशत सहमत नहीं है लेकिन एकदम से नकारते भी नहीं है ! 

स्वपन शरीर की शिथिल अवस्था में जागृत और अवचेतन मन के बीच होने वाले संकेतों के आदान प्रदान के दौरान उत्पन होनें वाली घटनाएं होती है ! जिनको कई लोग भविष्य का संकेतक भी मानते हैं लेकिन स्वपन सदैव सत्य हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता और सदैव असत्य हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता ! हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी स्वप्नों की सत्यता को लेकर अनेकानेक तथ्य सामने आते हैं ! रामायण में भी एक प्रसंग आता है जो उस समय का है जब भारत जी राजा दशरथ के देवप्रयाण के बाद रामजी को लिवाने जाते हैं ! उनके वहाँ पहुँचने से पहले सीताजी सपने का जिक्र करती है जिसमें माँ सीता व्याकुल होकर भगवान श्रीराम जी से कहती है कि मैनें आज स्वपन में देखा है कि भरतजी राज समाज सहित आये हैं और जो दृश्य मैनें देखा है उससे मेरा मन व्याकुलता से भर गया है ! 

रामायण में ऐसे कई तथ्य स्वपनों को लेकर आये हैं जो स्वप्नों की सत्यता की पुष्टि करते हैं ! मत्स्यपुराण भी स्वपनों को भविष्य का संकेत मानता है ! वर्तमान में भी स्वपनों को लेकर कई घटनाएं हमारे आस पास ऐसी घटित होती है जो स्वपनों की सत्यता की धारणा को बल प्रदान करती है ! हालांकि उनाव में खजाने को लेकर जिस स्वपन का जिक्र किया जा रहा है उसकी सत्यता की पुष्टि होना अभी बाकी है लेकिन देर सवेर सच सामने आ ही जाएगा ! जहां तक मेरा मानना है स्वपन में खजाने को लेकर संकेत तो मिल सकता है लेकिन इतना सटीक संकेत स्वपन में मिल सकता है इस पर सहसा विश्वास नहीं होता ! जबकि स्वपन देखने वाले साधू का कहना कि वहाँ एक हजार टन सोना है शक भी पैदा करता है ! 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

जानलेवा लापरवाहियों को कब तक लीपापोती में छिपाते रहेंगे !!

आखिर कब तक जानलेवा लापरवाहियों को सहन करते रहेंगे और इन प्रशासनिक  लापरवाहियों के कारण लोग अपनीं जानें गंवाते रहेंगे ! हमारे देश में साल-दरसाल धार्मिक स्थानों पर हादसे होते रहते हैं लेकिन ऐसा लगता प्रशासनिक तंत्र उनसे सबक लेना ही नहीं चाहता है ! ऐसा नहीं है कि इन स्थानों पर आनें वाले श्रदालुओं के बारे में प्रशासन को पहले से पता नहीं रहता हो लेकिन फिर भी प्रशासन इन हादसों को रोक पानें में नाकाम रहता है ! विडम्बना देखिये राज्य बदलते रहते हैं लेकिन हादसों के घटने का तरीका एक सा ही रहता है फिर भी प्रशासन सबक नहीं लेता है ! 

आजादी के बाद से अब तक हजारों लोगों की जानें धार्मिक स्थानों पर भगदड़ मचने की वजह से चली गयी और प्रशासन इस तरह के हादसों को रोकने के लिए कोई स्थायी व्यवस्था बना पानें में नाकाम रहा है ! और कई मामलों में तो भगदड़ के लिए पुलिस के द्वारा किया जाने वाला लाठीचार्ज ही जिम्मेदार रहा है ! अभी हाल ही में हुए नवमी पर दतिया के रतनगढ़ माता मंदिर और कुम्भ मेले के समय इलाहबाद रेलवे प्लेटफोर्म पर हुए हादसे तो पुलिस लाठीचार्ज के कारण ही हुए ! भले ही पुलिस अपनीं नाकामी अफवाहों पर डालकर बचने की कोशिश करे ! धार्मिक स्थानों पर आनें वाली श्रदालुओं की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन पहले से कोई व्यवस्था बना पाने में नाकाम रहता है और जब भीड़ हद से ज्यादा हो जाती है तो लाठीचार्ज का सहारा लिया जाता है जो ऐसे हादसों को जन्म देता है !

इन हादसों से सबक लेनें की बजाय प्रशासन और सरकारों द्वारा लीपापोती शुरू हो जाती है ! मुख्यमंत्री सारा दोष प्रशासनिक अमले पर डालकर बरी होना चाहता है और प्रशासनिक अधिकारी दोष श्रदालुओं पर डालकर बरी होना चाहते हैं ! राज्य में प्रशासनिक लापरवाही से होने वाली हर घटना की नैतिक जिम्मेदारी तो मुख्यमंत्री की बनती ही है ! भला यह कैसे चल सकता है कि प्रशासन द्वारा कोई भी अच्छा काम हो तो उसका श्रेय लेनें के लिए तो मुख्यमंत्री आगे आ जाते हैं लेकिन बुरे कामों के लिए प्रशासन पर दोष डालकर खुद किनारे होनें की कोशिश करते हैं और यह केवल एक राज्य अथवा एक मुख्यमंत्री की कहानी नहीं है बल्कि हर राज्य और हर मुख्यमंत्री की यही कहानी है और शिवराज सिंह चौहान भी इससे अलग नहीं है !

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

एक समान शिक्षा निति क्यों नहीं लागू हो सकती !

हमारी सरकारें शिक्षा के नाम पर तमाम दावे करती है लेकिन उन दावों में कोई सच्चाई नजर नहीं आती है ! भारत में तक़रीबन साढे छ: लाख गाँव है और गाँवों में चल रहे सरकारी विद्यालयों में जाकर देखेंगे तो आपको सरकारी दावों की सच्चाई का पता चल जाएगा ! उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिल रही शिक्षा देखेंगे तो आप सोचने पर विवश हो जायेंगे ! किसी दिन किसी भी गाँव के सरकारी विद्यालय का भ्रमण कर लीजिए ! आधी स्थति तो आपके सामनें विधालय में घुसते ही आ जायेगी और बाकी आधी आप उस विद्यालय के शिक्षकों से बात करेंगे तो सामने आ जायेगी !

सरकारी विधालयों को सरकारी घोषणाओं के आधार पर कर्म्मोनत तो कर दिया जाता है लेकिन अध्यापकों के नाम पर आज भी हर विद्यालय में शिक्षकों की कमी है ! और यह कोई दो चार साल से नहीं हो रहा है बल्कि पिछले दो दशक से यही हो रहा है और उसमें भी पिछले एक दशक में तो यह ज्यादा ही हुआ है ! कमी के बावजूद शिक्षकों पर हर वो काम थोपा गया जिसका असर छात्रों की पढ़ाई पर पड़ना तय था ! वोट करवाना , जनगणना करवानी , गाँवों में पशुओं की गिनती , पोलियो की दवा पिलाने ,मिड डे मिल जैसे तमाम काम कमी के बावजूद शिक्षकों के जिम्मे डाल दिए ! जिसका परिणाम जो होना था वही हुआ और शिक्षा का व्यापार शुरू हो गया और इसके पीछे सरकारों की नीतियां जिम्मेदार रही !

इन सब बातों का प्रभाव उन विद्यालयों में पढनें वाले छात्रों की शिक्षा पर पड़ना स्वाभाविक ही था ! जिसका परिणाम यह हुआ कि जो अभिभावक अपनें बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ा सकते थे उन्होंने अपनें बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाना शुरू कर दिया ! इनमें वो अभिभावक भी थे जो सक्षम थे और वो भी जिन्हें अपनें बच्चो के भविष्य की चिंता थी लेकिन खर्च उठाने में सक्षम नहीं थे लेकिन फिर भी अपना पेट काटकर भी उन्होंने अपनें बच्चो के भविष्य के लिए ये कदम उठाना पड़ा ! और जो लोग इसमें भी सक्षम नहीं थे उनके बच्चे आज भी इन्ही सरकारी विधालयों में पढ़ रहे हैं ! और उनके उज्जवल भविष्य की दुआ करनें के सिवा कोई क्या उम्मीद कर सकता है ! 


शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

अध्यादेश वापिस लेनें में राजनितिक नौटंकी के सिवा क्या था !!

राजनीति में अंदरूनी तौर पर रणनीतियाँ तो बनती है और उन्ही रणनीतियों के अनुरूप ही राजनितिक पार्टियां निर्णय लेती भी है ! लोकतंत्र में जनता सर्वोपरी होती है और यह सब जनता पर अपनी पार्टी का प्रभाव जमाने के लिए और जनता के वोट हासिल करने के लिए ही पार्टियां करती है ! लेकिन रणनीतियाँ बनाने और उन्हें अमलीजामा पहनाने के लिए भी कुशलता चाहिए वर्ना सफलता के बजाय असफलता हाथ लगती है !

अब देखिये ना दागी सांसदों और विधायकों पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए सरकार नें जो अध्यादेश राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा था उस पर कांग्रेस की सारी की सारी रणनीति हवा हो गयी और उससे ना निगलते बना और ना उगलते बना और  हर तरफ से मात ही मात हिस्से में आई !जहां एक और राष्ट्रपति नें अध्यादेश को लेकर सवाल खड़े करके जनता में विश्वास जगाया वहीँ कांग्रेस का यह मुगालता भी हवा हो गया कि कांग्रेस समर्थित राष्ट्रपति हैं इसलिए अध्यादेश पर बिना ना नुकर किये हस्ताक्षर कर देंगे ! कांग्रेस के रणनीतिकारों को इस बात का अंदेशा तक नहीं था कि राष्ट्रपति का रुख इस तरह का रहेगा ! 

जब राष्ट्रपति नें चार मंत्रियों को बुलाकर राष्ट्रपति नें अपनें रुख का इजहार किया तो कांग्रेस रणनीतिकारों नें आनन् फानन में एक नयी रणनीति का खाका तैयार किया ! जिसमें उन्होंने योजना तो बनायी जनता के बीच राहुल गांधी की छवि बनाने की लेकिन मामला उल्टा पड़ गया ! जिस तरह की राजनितिक नाटकबाजी हुयी उसे देखकर कांग्रेस के रणनीतिकारों पर सतर के दशक की हिंदी फिल्मों का प्रभाव साफ़ दिखाई पड़ रहा है ! उन फिल्मों में एक दृश्य होता था जिसमें नायक भाड़े के गुंडों को नायिका को छेडने के लिए कहता है और ऐनवक्त पर आकर गुंडों की पिटाई करता है ताकि नायिका पर उसका प्रभाव पड़ता और उनकी जान पहचान हो जाती थी ! कुछ वैसा ही इस राजनितिक नाटकबाजी में देखनें को मिला !

शनिवार, 28 सितंबर 2013

नापसंदगी के अधिकार ( No Vote ) को नकारने का अधिकार ( Right to Reject ) बताया जा रहा है !!

कल सर्वोच्च न्यायालय नें एक अहम फैसला देते हुये मतदाता को नकारात्मक वोटिंग का अधिकार देनें के लिए ईवीएम में एक नापसंदगी का बटन जोडनें के निर्देश निर्वाचन आयोग को दिए हैं ! फैसला अपनें आप में अहम तो है लेकिन जिस तरह से मीडिया द्वारा इसे राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार ) कहकर प्रचारित किया जा रहा है वो सही नहीं है ! यह दरअसल पहले से चला आ रहा नापसंदगी के आधिकार ( नो वोट )को सुलभता प्रदान करनें वाला निर्देश ही है जिसको राईट टू रिजेक्ट ( नकारने का अधिकार )  नहीं माना जा सकता है ! 

यह नापसंदगी वाला अधिकार पहले से ही था लेकिन उसके लिए जो प्रक्रिया थी उससे मतदान की गोपनीयता नहीं रह पाती थी और प्रक्रिया भी परेशान करने वाली थी ! पहले इसके लिए प्रारूप १७ भरना पड़ता था जिसको मांगते ही यह पता चल जाता था कि आप नापंसदगी का मत ( नो वोट ) डालेंगे ! दूसरी बात यह फ़ार्म मतदान खत्म होनें के अंतिम आधे घंटे में ही मांग सकते थे और भरकर जमा करवा सकते थे ! उस अंतिम आधे घंटे को छोड़कर आप प्रारूप १७ की मांग नहीं कर सकते थे ! सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद अब नापसंदगी के मत की गोपनीयता भी बनी रहेगी और यह मतदान के पूर्ण समय के लिए ईवीएम मशीन पर बटन के रूप में उपलब्ध होगा ! यह उन मतदाताओं की इच्छा पूर्ण करेगा जो मतदान तो करना चाहते हैं लेकिन कोई भी उम्मीदवार पसंद ना होने पर वोट नहीं देनें जाते हैं ! 

लेकिन इसको नकारने का अधिकार (राईट टू रिजेक्ट ) कहना सही नहीं है क्योंकि सही मायनों में नकारने का अधिकार राईट टू रिजेक्ट ) उसे कहा जाता है जिसमें नापसंदगी के लिए पड़ने वाले मत सबसे ज्यादा मत पाने वाले प्रत्याशी से ज्यादा हो तो उन सभी प्रत्याशियों को आगामी किसी भी चुनाव के लिए अयोग्य ठहरा कर चुनाव रद्द घोषित करके दुबारा से चुनाव करवाया जाए ! जबकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है नापसंदगी के लिए पड़नें वाले मतों की गिनती अलग होगी लेकिन उनको खारिज मतों में ही गिना जाएगा ! नापसंदगी के मतों से चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ेगा ! इसको भी लागू करने की कोई समयसीमा तय नहीं की गयी है इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह कब तक लागू होगा !

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

राजनैतिक पार्टियों द्वारा की जाने वाली चुनाव सुधार की बातें खोखली हैं !!

हमारे देश में गाहे बगाहे हर पार्टी चुनाव सुधारों की बातें करती रहती है लेकिन उनकी ये बातें बातों तक ही सिमित रहती है ! असल में तो हर पार्टी वर्तमान लुंजपुंज व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है और अब ये भी साफ़ हो चूका है कि इसी व्यवस्था को बनाए रखनें के लिए ये पार्टियां किसी भी सीमा तक जा सकती है ! हालिया दिनों में आये दो फैसलों और उनको उलटने की प्रक्रिया नें दिखा दिया कि सभी राजनैतिक पार्टियों की कथनी और करनी में बहुत बड़ा फर्क है और इस ढुलमुल व्यवस्था को बनाए रखनें की हरसंभव कोशिश ये पार्टियां करेगी !

केन्द्रीय सुचना आयोग और सर्वोच्च न्यायालय की और से दौ अच्छे फैसले राजनैतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने और संसद में अपराधियों कि पहुँच को रोकने को लेकर आये थे जो अगर लागू हो जाते तो अच्छे परिणाम मिल सकते थे ! वैसे तो इन फैसलों के आने के बाद से ही राजनैतिक पार्टियों के मंसूबे साफ़ दिखाई पड़ रहे थे जिसका जिक्र मैनें अपनें अग्रलिखित आलेख "इस भ्रष्टाचार और अपराधपोषित व्यवस्था को बदलनें का रास्ता आखिर क्या है " में किया था ! जो पहले मंसूबे इनके दिखाई पड़ रहे थे अब उन्ही को अमलीजामा पहनाया जा रहा है ! 

हमारे संविधाननिर्माताओं नें विधायिका को ज्यादा अधिकार इसलिए दिए थे कि ये जनता के प्रति जबाबदार होंगे तो जनता के डर से इन अधिकारों का दुरूपयोग नहीं करेंगे ! उन्होंने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि विधायिका अपनें अधिकारों का इस तरह से दुरुपयोग करेगी जैसा आज किया जा रहा है ! एक फैसले को आर्टीआई कानून में संशोधन करके बदल दिया गया तो दूसरे को अध्यादेश के जरिये बदलने की कोशिशें अपनें अंतिम चरण में है ! ऐसे में सुधार की रौशनी आये तो आये किधर से क्योंकि किसी भी तरह के सुधार को तो पार्टियां आने ही नहीं देना चाहती है और इसमें उनको सफलता दिलाने के लिए उनको प्राप्त संविधानप्रदत अधिकार उनके लिए एक मजबूत ढाल का काम कर रहे हैं ! 

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

हर संस्था की विश्वनीयता बनाए रखना क्या सरकार की जिम्मेदारी नहीं !!

अपनें राजनैतिक फायदे के लिए कांग्रेस समर्थित यूपीए सरकार नें देश की तमाम संस्थाओं की विश्वनीयता पर सवाल खड़े करनें में कोई कसर नहीं छोड़ी ! यह अलग बात है कि हर बार सरकार की खुद की विश्वनीयता संदेह के कठघरे में खड़ी होती गयी और आज हालात यह है कि वो विश्वनीयता के मामले में सबसे निचले पायदान पर है ! जब टूजी का मामला हुआ तो उसनें केग को कठघरे में खड़ा कर दिया लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट नें टूजी के मामले में फैसला सुनाया तो सरकार के सारे आरोप धराशायी हो गए ! इस दूसरे कार्यकाल में सरकार लगातार घोटालों के आरोपों में घिरती रही और सरकार हर उस संस्था पर सवाल खड़े करती !

अपनें इस कार्यकाल में सरकार नें हर संस्था की विश्वनीयता को संधिग्ध बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ! देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई का जिस तरह से दुरूपयोग किया उसके लिए तो सर्वोच्च न्यायालय तक नें सीबीआई को सरकार के पालतू तोते की संज्ञा तक दे डाली ! सीबीआई के अलावा केग,सीवीसी,पीएसी जैसी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वनीयता को संदिग्ध बनाने की भरपूर कोशिशें सरकार की और से लगातार की गयी ! और सरकार की ये कोशिशें हरदम मीडिया की सुर्खियाँ बनती रही लेकिन इन कोशिशों से इन संस्थाओं से ज्यादा खुद सरकार की विश्वनीयता गिर रही थी ! जिसका पता सरकार चला रही पार्टी कांग्रेस को भी था लेकिन उसकी इच्छा अपनीं विश्वनीयता की चिंता करनें से ज्यादा घोटालों को दबाने की थी जिसमें भी वो सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रुख के कारण नाकामयाब होती गयी !

सरकार नें देश की सबसे विश्वनीय संस्था सेना को भी विवादों में लानें में कोई कसर नहीं छोड़ी ! थल सेनाध्यक्ष वी.के सिंह के उम्र का विवाद हो या फिर उनकी गोपनीय चिठ्ठी को मीडिया में गुपचुप तरीके से पहुंचाना हो ! और इन सब में देश के सुरक्षा हितों तक को ताक में रख दिया गया था ! जब सेनाध्यक्ष का उम्र विवाद चल रहा था और उस मामले में सरकार की फजीहत हो रही थी तो उस गोपनीय चिट्ठी को लीक किया गया था जिसमें जिसमें सेनाध्यक्ष नें हमारी सेना की कमजोरियों का जिक्र किया था ! जिन जानकारियों को हासिल करनें के लिए दुश्मन देश जासूसी का सहारा लेते हैं वही जानकारियाँ उन्हें सहज में हमारे मीडिया के द्वारा मिल गयी ! 

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

तुच्छ राजनितिक स्वार्थों के लिए संप्रदायों के दिलों में जहर तो मत घोलो !!

देश के एक इलेक्ट्रोनिक मीडिया चेन्नल आज तक नें जब मुज्जफरनगर दंगे को लेकर स्टिंग आपरेशन किया तो देश के सामनें एक कड़वी सच्चाई बेपर्दा होकर बाहर आई ! और वो सच्चाई थी कि कैसे एक चुनी हुयी सरकार के मंत्री नें दंगों की भूमिका तैयार की और जब दंगे शुरू हो गए तो भी जो हो रहा है होनें दो का निर्देश पुलिसवालों को देकर दंगों को होनें दिया ! हालांकि देखें तो गलती उन पुलिसवालों की भी थी लेकिन इसके बावजूद इस सच्चाई को तो हर कोई जानता है कि पुलिस राज्य सरकारों के दबाव में काम करती है और जो कोई अधिकारी राज्य सरकार के दबाव में काम नहीं करता है उसे किस तरह दण्डित किया जाता है यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है ! 

हालांकि मीडिया चेन्नल के इस स्टिंग में ऐसा कुछ भी नया नहीं निकलकर आया है जिसको लोग पहले से नहीं जानते हैं ! जो ख़बरों पर बारीकी से नजर रहते हैं उन्हें पता था कि एक के बाद एक हो रहे दंगों के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है और उतरप्रदेश सरकार में सबसे ज्यादा किसका प्रभाव है ! और उस आदमी की मानसिकता भी किसी से छुपी हुयी नहीं थी ! हाँ इतना जरुर हुआ कि मीडिया के हाथ में सीधा हमला बोलनें का हथियार जरुर मीडिया को मिल गया जिसको भी लेनें से मीडिया चूक गया ! क्यों नहीं मीडिया नें इन दंगों के निष्पक्ष जांच की मांग उठायी जबकि इतने बड़े पैमाने पर दंगे हुए हैं ! मीडिया भी उन पार्टियों के खिलाफ तगड़ा हमला बोलनें से कतराती है जिनको सेक्युलर होनें का प्रमाणपत्र या तो मीडिया खुद बांटती है अथवा ये पार्टियां ही आपस में बाँट लेती है !

मीडिया के इसी रवैये और लेटलतीफी के कारण ही उतरप्रदेश में एक के बाद एक दंगे होते रहे और मीडिया चैन की बंसी बजाता रहा और अब इतने बड़े नरसंहार के बाद थोड़ी बहुत नींद उडी है जिसे अभी भी पूरा जागना नहीं कहा जा सकता है ! जबकि सपा सरकार आनें के बाद से लगातार वहाँ दंगों की एक श्रृखंला आरम्भ हो गयी और समझदार लोग यह जानते हैं कि बिना सरकारी सरंक्षण के इस तरह की श्रृंखला आरम्भ हो नहीं सकती ! भारत में आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि इस तरह से एक ही राज्य में लगातार एक निश्चित अंतराल पर इस तरह से दंगों की श्रृंखला आरम्भ हुयी हो ! हाँ किसी आक्रोशित करनें वाली घटना को लेकर एक ही समय में अलग अलग जगहों पर एक साथ दंगे हो चुके हैं जो एक बार काबू में आने के बाद शांत हो गए थे !

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

दंगो को प्रायोजित तौर पर भड़काया जाता है !

मुजफ्फरनगर दंगे के कारण दंगों को लेकर फिर सवाल खड़े हुए हैं और जो सबसे बड़ा सवाल है उस पर शायद कोई चर्चा नहीं करना चाहता है ! सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या परिस्थितियों के कारण दंगे भडकते हैं या फिर दंगे भडकाए जाते हैं ! जहाँ तक  पिछले १०-१५ सालों में हुए दंगों को देखा जाए तो एक बात साफ़ निकल कर आती है कि ये अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ खुरापाती लोगों द्वारा ये दंगे देश के बहुसंख्यक समाज पर थोपे गएँ हैं और उन दंगों के असली गुनहगारों को बचाने का कार्य छद्म सेक्युलर पार्टियों नें किया और उसका पूरा दोष मीडिया के उन छद्म सेक्युलरवादियों की मदद से बहुसंख्यक समाज पर थोपनें की कोशिश की जो इन्ही पार्टियों की नीतियों के समर्थक हैं !

अगर आप गौर करेंगे तो मेरी बात आपको भी समझ में आ जायेगी ! गुजरात दंगे को लेकर मीडिया में बहुत चर्चा हुयी लेकिन चर्चा हमेशा इकतरफा ही रही क्योंकि गुजरात दंगे की शुरुआत गोधरा की घटना से हुयी थी और गोधरा की घटना के बारे में सबको पता है कि वो कोई आकस्मिक घटना नहीं थी बल्कि पहले से योजना बनाकर उस घटना को अंजाम दिया गया था ! और उसके कारण ही आक्रोश फैला जिसमें व्यापक नरसंहार हुआ ! अगर गोधरा नरसंहार नहीं हुआ होता तो गुजरात में कोई भी दंगा नहीं होता इसलिए गुजरात दंगों के असली आरोपी तो वही हैं जिन्होनें गोधरा नरसंहार को अंजाम दिया था ! दो समुदायों के बीच अगर ऐसी शुरुआत कोई करता है तो फिर उसके परिणाम आगे जाकर क्या होंगे और कितनें भयानक होंगे यह किसी को पता नहीं होता है !

इसी तरह २०११ में राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ में दंगा हुआ जिसका कारण ये था कि अल्पसंख्यक समाज के लोगों को पंचायत नें कब्रिस्तान के लिए जगह दे दी और उस जगह को लेकर विवाद चल रहा था ! उसी विवाद को जबरन सुलझाने और हर कीमत पर कब्रिस्तान बनाने को लेकर पांच हजार लोगों की भीड़ इकटठी हो गयी और जबरन वहाँ कब्रिस्तान बनाने की कोशिश की गयी जिसमें विवाद हो गया जिसको सुलझाने की कोशिश भी दो स्थानीय विधायकों नें की थी जिनमें एक विधायक अल्पसंख्यक समुदाय से ही थी और दोनों पक्षों को इसके लिए राजी भी कर लिया कि सरकारी फैसले के आनें तक का इन्तजार किया जाएगा और उस फैसले को दोनों समुदाय मानेंगे ! उसके बाद अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों नें ईदगाह से गोलीबारी करनी शुरू कर दी और मामला दंगे में बदल गया ! 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी प्रेमियों के लिए एक नयी उमंग और नए सपनों का दिन हिंदी दिवस !!

किसी भी देश कि भाषा और संस्कृति ही उस देश को गौरवान्वित करने वाली होती है लेकिन यह भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारत की राष्ट्र भाषा को अपने ही देश में दोयम दर्जे का अधिकार मिला हुआ है और हिंदी अपने ही देश में राजनीतिक चालों का शिकार बन गयी और आज भी अपनें उस गौरव को नहीं पा सकी जिसकी वो हकदार थी ! यह पीड़ा हिंदी प्रेमियों को सदैव उद्वेलित करती है और जब १४ सितम्बर को हिंदी दिवस को मनाते हैं तो ये घाव हरे हो जाते हैं !

जब १९३६ में गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की स्थापना की गयी और इससे उस समय के बड़े नेता जब इससे जुड़े जिनमें जवाहर लाल नेहरु ,नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ,सरदार वल्लभ भाई पटेल ,जमना लाल बजाज ,चक्रवर्ती राजगोपालाचारी आदि थे जो चाहते थे कि हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिले लेकिन उस समय तो अंग्रेजो का राज था उसके बाद जब भारत आजाद हुआ और जब संविधान सभा ने एकमत से १४ सितम्बर १९४९ को हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया तब से लेकर आज तक हम इस दिन को हिंदी दिवस के रूप मनाते आ रहे हैं ! हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा तो मिला हुआ है लेकिन उसको उसका उचित सम्मान आज तक नहीं मिला !!

इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राष्ट्र भाषा का दर्जा तो मिला लेकिन राज भाषा का दर्जा उसको आज तक नहीं मिला जिस पर आज देश आजाद होने के छियासठ साल बाद भी विदेशी भाषा अंग्रेजी अपना कब्ज़ा जवायें बैठी है ! भारत को भाषाई तौर पर जोड़े रखनें में हिंदी का कोई विकल्प है नहीं और हिंदी अपना ये दायित्व बखूबी तौर पर निभा भी रही है और आज भी अलग अलग प्रान्तों के लोगों के आपसी वार्तालाप की भाषा हिंदी ही है ! एक जमाने में हिंदी का विरोध करनें वाले दक्षिण भारतीय राज्यों में भी हिंदी का प्रभाव स्पष्ट तौर पर उस समय देखनें को मिल जाता है जब वहाँ के लोग अपनीं बात हिंदी में कहने लगे हैं ! 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

शिक्षक दिवस के बहाने ज़रा विचार तो कीजिये !!

आज शिक्षक दिवस है और इसको हर साल मनाते हैं ! बधाईयां , शुभकामनायें देकर हम अपनें कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं ! लेकिन जैसे जैसे नाम बदलते गए वैसे वैसे इनमें भावनात्मक लगाव भी कम होता गया इसका विचार करनें की जहमत कोई नहीं उठाता है ! अध्यापन करानें वाले और अध्ययन करनें वाले को पहले हमारे यहाँ गुरु और शिष्य कहा जाता था तब शिष्य का गुरु के प्रति आदर का भाव जिंदगी भर के लिए बना रहता था ! फिर इस रिश्ते का नया नाम शिक्षक और छात्र का हुआ और उस आदर के भाव में गिरावट आई और वो आदर का भाव केवल आमना सामना होनें तक सिमित हो गया ! आज तो इसका नया अंग्रेजी संस्करण टीचर और स्टूडेंट वाला आ गया है जिसमें यह रिश्ता केवल और केवल शिक्षण संस्थान के भीतर तक ही रह गया है और बाहर दोनों अनजान हो जाते हैं !

हम डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं ! लेकिन क्या यह अच्छा नहीं हो कि किसी भी दिवस को शुभकामनायें अथवा बधाइयों द्वारा मनाने के स्थान पर हम उस दिवस को मनाने के मूल उद्देश्य पर विचार करें , उस पर चिंतन करें ! उस पर चिंतन मनन करेंगे तभी तो वो दिवस मनाना सार्थक होगा और हमारे मनोभावों में कुछ बातें गहनता से अपना स्थान बना पाएगी ! वर्ना तो केवल और केवल औपचारिकता निभानें की चलती फिरती मशीन बन कर रह जायेंगे ! हमें आज शिक्षक दिवस के बहानें इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमारी प्राचीन परम्परा से चला आ रहा  गुरु और शिष्य का रिश्ता आज टीचर और स्टूडेंट तक आते आते केवल औपचारिक बनकर क्यों रह गया है !

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

मीडिया का अतिरेकी रवैया अपनाना क्या सही है !

आज आप अगर मीडिया की तरफ नजर दौड़ाएंगे तो हमारे देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भेड़चाल में चलता हुआ देखेंगे ! एक ही मुद्दे के पीछे इतना अतिरेकी रवैया अपना लेंगे कि आम दर्शक परेशान हो जाता है ! इस भेड़चाल में हर चेन्नल शामिल हो जाता है जिसके कारण दर्शकों के पास अन्य कोई विकल्प भी नहीं रहता है ! मीडिया को उसकी उपयोगिता के कारण ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है लेकिन बाकी स्तम्भों की तरह इसमें भी गिरावट का दौर जारी है !

मीडिया की इस भेड़चाल और अतिरेकी रवैये के कारण कई अहम मुद्दे गायब ही हो जातें हैं ! अभी का ताजा आसाराम बापू वाले प्रकरण को ही देख लीजिए मीडिया एक सप्ताह से लगातार इसी एक मुद्दे को चक्करघिन्नी की तरह घुमाए जा रहा है ! और इस बीच आये कई अहम मसले लोगों की जानकारी में ही नहीं आ पाए ! इसी दरम्यान कुछ संसोधनों के साथ खाध सुरक्षा बिल पास हो गया लेकिन लोगों को पता तक नहीं चला कि यह बिल किस रूप में पास हुआ है ! उसी तरह दामिनी बलात्कार प्रकरण में एक अपराधी को कानूनी बारीकी का फायदा मिलनें से दंड मिलने से बच गया लेकिन मीडिया के लिए वो अहम मुद्दा नहीं बना जबकि उस पर विस्तृत चर्चा होनें की आवश्यकता थी ! 

इसी तरह हमारी अर्थव्यवस्था लगातार धराशायी होती जा रही है लेकिन आसाराम प्रकरण की आड़ में मीडिया नें उस तरफ से भी मुहं फैर रखा है ! हर चेन्नल में होड़ मची हुयी है कि कौन आसाराम प्रकरण को ज्यादा दिखाता है ! इन्तिहा की हद तो देखिये कल एक चेन्नल नें तीन साल पुराना स्टिंग आसाराम के ऊपर दिखाया और बड़ी बेशर्मी से बताया भी कि यह तीन साल पुराना है ! तो भाई जब आपके पास तीन साल से पड़ा हुआ था तो दिखाया अब क्यों और क्या इसी मीडिया को जिम्मेदार कहा जाएगा क्यों तीन साल का इन्तजार किया गया ! या फिर इसको इतनें दिन रोके रखनें के पीछे भी कोई सौदा हुआ था और अब चेन्नल को लगा कि अब तो आसाराम पर इससे भी जघन्य आरोप लग चुके हैं तो अब उनके इस स्टिंग को आगे दिखाने का कोई फायदा नहीं होगा इसलिए पड़ा रहनें से अच्छा है कि अभी दिखा दिया जाए !

रविवार, 1 सितंबर 2013

न्याय होना और न्याय होते हुए दिखना दोनों जरुरी है !!

दिल्ली दामिनी सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में अठारह वर्ष से कम आयु के अपराधी के मामलें में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ( बाल न्यायालय ) की तरफ से आये फैसले नें पुरे देश को निराश हो किया है ! जिसका कारण यह है कि उसनें जो अपराध किया है वो कहीं से भी किसी बाल अपराधी जैसा नहीं है और जिस दिन उसनें यह जघन्य अपराध किया था उस दिन अठारह वर्ष का होनें में महज कुछ ही महीनें बाकी थे ! उन अपराधियों नें जो अपराध किया था उसके लिए लोग कड़ी सजा की मांग कर रहे थे लेकिन एक अपराधी का कानूनन नाबालिग ( ? ) निकल जाना और सजा से बच जाना कई सवाल खड़े करता है !

जिस तरह जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड नें उस अपराधी को तीन साल सुधार गृह भेजनें का फैसला सुनाया है उसनें एक बार इस बहस की तो शुरुआत कर ही दी कि ऐसे संगीन अपराधों में लिप्त लोगों के अपराधों की सुनवाई जुवेनाइल जस्टिस एक्ट ( किशोर न्याय कानून ) के अंतर्गत होनी चाहिए अथवा नहीं ! वैसे इसमें जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की बात करें तो उसनें तो फैसला कानून के हिसाब से ही दिया है और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में सजा का तो प्रावधान तो है ही नहीं बल्कि अपराध की श्रेणी के आधार पर सुधार गृह भेजनें के ही प्रावधान है और बोर्ड नें उसी आधार पर उसे तीन साल के लिए सुधार गृह भेजनें की व्यवस्था दी है जो की इस कानून के तहत अधिकतम सजा है ! 

इस फैसले के बाद अब जरुरत इस बात की है इस तरह के अपराधी अगर इस कानून की आड़ में सजा से बचकर निकल रहे हैं तो इस कानून में सुधार की आवश्यकता तो अवश्य है ! बालिग़ होनें में बचे हुए समय और अपराध की श्रेणी में तालमेल करते हुए इस कानून में सुधार किया जाना चाहिए क्योंकि इसी मामले को देखिये अपराध के आठ महीनें बाद आये इस फैसले में वो अपराधी आज की तारीख में नाबालिग नहीं है लेकिन उसे जो सजा मिली है उसमें उसको नाबालिग होनें का फायदा मिल गया है ! इसलिए इस पर दुबारा विचार करते हुए सुधार किया जाना चाहिए और आशा है कि सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई पूर्ण होनें पर सर्वोच्च न्यायालय से जरुर कुछ निकलेगा !

शनिवार, 31 अगस्त 2013

प्रधानमंत्री जी को गुस्सा क्यों आता है !

कल राज्यसभा में माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को गुस्सा आया तो देश को पता तो चला कि उनको गुस्सा भी आता है वर्ना देश को तो अब तक पता ही नहीं था कि उनको गुस्सा भी आता है ! लेकिन उन्होंने अपनें गुस्से को जाहिर करनें के लिए गलत जगह और गलत मुद्दे का चुनाव कर लिया जिसके कारण उनके गुस्से की कोई अहमियत भी नजर नहीं आई ! वैसे प्रधानमंत्री जी से ज्यादा देश गुस्से में है और देश का गुस्सा खुद प्रधानमंत्रीजी के प्रति है और देश के पास उसकी वाजिब वजहें खुद प्रधानमंत्री जी नें ही देश को मुहैया करवाई है !

वैसे अपनें प्रधानमन्त्री जी को जिन बातों पर गुस्सा आना चाहिए उन पर गुस्सा आता नहीं है ! पाकिस्तानी सैनिक भारतीय जवानों के सर काटकर ले जाते हैं लेकिन प्रधानमंत्री जी को गुस्सा नहीं आता बल्कि अपनें मंत्रीमंडल के सहयोगी मंत्री को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की निजी भारत यात्रा की अगुवानी करनें भेज देते हैं ! उस अगुवानी से अभिभूत पाकिस्तान भारतीय सैनिकों की हत्या करके चले जाते हैं तब भी उनको गुस्सा नहीं आता है ! इटली के सैनिक भारतीय मछुआरों की हत्या कर देते हैं तब भी उनको गुस्सा आना तो दूर उल्टा उनको वोट देनें इटली जानें का विरोध तक सरकार नहीं कर पाती है ! वो तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसनें इटली के राजदूत के देश छोड़ने पर रोक लगाकर उनको वापिस आनें पर मजबूर कर दिया !

अपनें मंत्रिमंडल के मंत्रियों के द्वारा किये गए भ्रष्टाचार पर भी उनको गुस्सा नहीं आया और वे आखिरी दम तक " कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ " का नारा दोहराते रहे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में उस नारे की हवा निकल गयी और भ्रष्टाचार की बात पुख्ता हो गयी ! उनके दूसरे कार्यकाल से ही उनके मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगते रहें हैं और कुछ तो साबित भी हो गए हैं लेकिन खुद प्रधानमंत्री जी निजी तौर पर इससे बचे हुए थे लेकिन कोयले घोटाले की कालिख खुद प्रधानमंत्री तक भी पहुँचती दिखाई दे रही है जिससे बचने की कोशिश फायलें गायब करवा कर की जा रही है ! लेकिन इन सब बातों पर उनको गुस्सा नहीं आता है ! 

बुधवार, 28 अगस्त 2013

आर्थिक विफलता के पीछे उदारीकरण की नीतियों की विफलता है !

आज हमारे देश में बड़ी अजीब स्थति है  एक और हमारी सरकार जहाँ फ़ूड सिक्योरिटी बिल देश में लागू करके अर्थव्यवस्था पर एक और बोझ डाल देना चाहती है वहीँ हमारी अर्थव्यवस्था लगातार रसातल में जा रही है ! अगर अर्थव्यवस्था की हालत देखें तो आज १९९१ से भी बुरी स्थति हमारे सामनें आ खड़ी हुयी है जब भी सोना गिरवी रखा गया था और आज फिर वैसी ही चर्चाएं सरकार के मंत्रियों के मार्फ़त ही सुनने को मिल रही है तो क्या वाकई आज देश की अर्थव्यवस्था २२ साल बाद उसी स्थति में आ खड़ी हुयी है और भारत आर्थिक दिवालियेपन की और बढ़ रहा है ! 

मैनें आज १९९१ से भी बुरी स्थतियाँ इसलिए बतायी है क्योंकि उस समय तो हमारे सामनें विदेशी मुद्रा भण्डार की समस्या आ खड़ी हुयी थी जो आज भी हमारे सामनें आकर खड़ी हो गयी है और आज आयात करनें के लिए गिनती के दिनों की विदेशी मुद्रा हमारे पास है ! लेकिन घटता औधोगिक उत्पादन , बढती महंगाई और लगातार बढते सरकारी करों के बोझ नें हमारी घरेलु अर्थव्यवस्था का हाजमा भी खराब कर रखा है ! वैसे क्या यह अजीब संयोग नहीं है कि १९९१ में जब सोना गिरवी रखा था तब के प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी थे लेकिन मनमोहन सिंह जी उनके आर्थिक सलाहकार हुआ करते थे और आज वही मनमोहन सिंह जी खुद प्रधानमन्त्री है और उनकी ही आर्थिक नीतियां १९९१ के बाद से लागू है ! भले ही बीच में कुछ समय के लिए मनमोहन सिंह सत्ता से नहीं जुड़े हुए हो और सरकार भाजपा की हो लेकिन भाजपा नें भी वही आर्थिक नीतियां आगे बढ़ाई जिनकी शुरुआत मनमोहन सिंह जी नें १९९१ से शुरू की थी !

आज सबसे बड़ा सवाल यही खडा हो गया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के जिस समझौते ( गैट ) पर हस्ताक्षर करके भारत नें आर्थिक उदारीकरण की जो नीति अपनाई थी वो कहीं छलावा तो नहीं था जिसका अंदेशा कई लोगों नें उस समय भी जताया था और जिसके विरोध में स्वदेशी जागरण मंच नें आंदोलन भी चलाया था ! कई लोगों नें उस समय भी कहा था कि ये एक ऐसा दीर्घकालिक धोखा है जिसमें भारत एक बार फंस गया तो बाहर निकलना मुश्किल होगा लेकिन उस समय किसी नें ध्यान नहीं दिया या फिर जान बूझकर अनसुना कर दिया गया ! वैसे भी ये रास्ता भारतीय अर्थशास्त्र के ठीक उलट था जिसमें विदेशी भरोसे के सहारे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करनें का सपना देखा गया था ! 

शनिवार, 24 अगस्त 2013

हमारा देश बिना बाड़ के खेत जैसा हो गया हैं !!

लगातार पिछले दो सालों से हमारी सीमाओं में पडौसी देशों के बढते दुस्साहस नें हमारे देश की सीमाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं ! अब तो ऐसा लग रहा है कि देश रामभरोसे चल रहा है और हमारा देश बिना बाड़ के खेत के समान हो गया है जहाँ पर कोई भी मुहं उठाकर चला आ सकता है और आराम से वापिस भी जा सकता है ! कोई रोकने वाला नहीं कोई टोकने वाला नहीं जब मर्जी हो आये और जब मर्जी हो जाए !

पाकिस्तान नें अभी पिछले ही दिनों में हमारी सीमाओं में घुसकर दो बार हमारे जवानों की ह्त्या करके चला गया था और हम कुछ भी नहीं कर पाए और चीन हमारी सीमाओं में लगातार घुसता रहता है और तब भी हम कुछ नहीं कर पाते हैं और उल्टा उसके सैनिकों को वापिस भेजनें के लिए हम अपनीं सीमाओं में ही अपनें सैनिकों को पीछे लेनें की बेतुकी बात भी उसकी मान लेते हैं ! और अब तो पाकिस्तान और चीन के बाद नयी खबर के अनुसार मणिपुर में म्यांमार के सैनिक भी हमारी सीमाओं में घुसने का दुस्साहस कर चुके हैं ! जिस हिसाब से एक के बाद एक हमारे पडौसी देश हमारी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहें हैं वो हमारे लिए गंभीर चुनौती पेश कर रहे हैं !

म्यांमार जैसा छोटा सा देश अपनें बूते इतना बड़ा दुस्साहस नहीं कर सकता कि उसके सैनिक ना केवल हमारी सीमाओं में आ जाये बल्कि हमारी सीमाओं में अस्थायी केम्प बनाने की मंशा भी पाल बैठे हैं ! चीन हमको चारों और से घेरने की रणनीति के तहत काम तो पिछले दस सालों से कर रहा था और इसके लिए उसनें हमारे पडौसी देशों के साथ ना केवल अच्छे संबध स्थापित किये बल्कि उसनें किसी ना किसी तरीके से अपनी उपस्थति भी इन देशों में दर्ज करवाई है ! श्रीलंका ,बांग्लादेश , म्यांमार ,पाकिस्तान जैसे देशों में उसनें कई तरह के निर्माण कार्य करने के बहाने अपनी उपस्थति को पुख्ता किया और इस बहाने इन देशों से अपने संबधों को प्रगाढ़ किया !